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संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
पुनः इन्द्र वृत्र वध के लिए अनुरोध करते हैं । भगवान् विष्णु ही एकमात्र निराश्रितों के आश्रयदाता हैं । "
इस प्रकार रामायण में अनेक स्तुतियां हैं जो विभिन्न अवसरों पर गायी गई हैं । दुःखनिवृत्यर्थ, पापविमोचनार्थ, भक्तोद्धारार्थ, विजयार्थ एवं सांसारिक कामनाओं से प्रेरित होकर भक्त अपने उपास्य के चरणों में स्तुतियां समर्पित करते हैं। यहां श्रीमद्भागवत की तत्त्वज्ञानप्रधान स्तुतियों का सर्वथा अभाव है । वेदों का अत्यधिक प्रभाव परिलक्षित है । वेदों में विभिन्न कामनाओं से प्रेरित होकर ऋषिगण अपने उपास्य के चरणों में सूक्त विनिवेदित करते हैं । वैदिक देवों-अग्नि, उषा, मरुत्, इन्द्र आदि के स्थान पर वैष्णव धर्म की प्रतिष्ठापना हो चुकी थी । विष्णु के अवतार श्रीराम ही जगपूज्य हो गए थे ।
महाभारत की स्तुतियां
महाभारत विश्वकोश है । अन्य विषयों के अतिरिक्त विभिन्न भक्तों की स्तुतियां भी उपन्यस्त है, जो हृदयावर्जिका, भक्तजनाह्लादिक, भगवदाकषिका हैं। विभिन्न प्रकार के भक्त अपने-अपने उपास्य के चरणों में स्तुत्यांजलि समर्पित करते हैं । संकट से मुक्ति के लिए, संसारिक अभ्युदय, युद्ध में विजय एवं लोक मंगल के लिए स्तुतियां गायी गई हैं । उपर्युक्त सकाम स्तुतियों के अतिरिक्त निष्काम स्तुतियां भी हैं जिसमें केवल प्रभुचरणरति की ही प्रधानता है ।
महाभारत में भक्तों की अनेक कोटियां हैं। राजवर्ग, सामान्य मनुष्य एवं पशु-पक्षी - तिर्यञ्चयोनि के भी भक्त अपने स्तव्य की स्तुति में संलग्न हैं । एक तरफ भीष्म, व्यास, युधिष्ठिर एवं ध्रुव जैसे ज्ञानी भक्त भी हैं तो दूसरी तरफ कद्रू-सर्पों की माता भी स्तुति कर रही है । राजन्यवर्ग के भक्तों
अर्जुन, युधिष्ठिर, भीष्म, मुचुकुन्द आदि हैं । मनुष्यों के अतिरिक्त देवगण भी स्तोता के रूप में उपस्थित होते हैं । इन्द्र, ब्रह्मा एवं अन्य देवगण भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति में निरत हैं ।
स्तुतियों के अवसर भी भिन्न-भिन्न हैं । संकटकाल, तपस्याकाल, उपकृत होकर तथा महाप्रयाणिक वेला में भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति की गई
| द्रौपदी पूर्णत: असहाय होकर - प्रभु श्रीकृष्ण की स्तुति करती है । कद्र सर्पो की रक्षा के लिए इन्द्र की, देवगण लोक रक्षा के लिए गर्भस्थ श्रीकृष्ण की एवं ध्रुव की तपोज्वाला से संतप्त देवगण भगवत्स्तुति करते हैं । शिव की क्रोधाग्नि से संतप्त प्रजापति दक्ष शिव के सहस्रनामों के
१. वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड ८४.१७
२. तत्रैव ८४।८
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