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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन . पंच श्लोकात्मक इस स्तुति में भगवान् के कष्ट निवारक, सर्वसमर्थ, सर्वव्यापक, शत्रुविनाशक एवं लोकमंगलकारक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। ऋषिगणकृत श्रीराम स्तुति
लवणासुर से त्रस्त, व्यथित ऋषि लोग बहुत समर्थ लोगों से अपनी प्राण की रक्षा करने की याचना कर चुके, लेकिन कोई रक्षक नहीं मिला। सबके सब भय से आक्रांत हैं। अन्त में वे लोग प्रभु श्रीराम के शरणापन्न होते हैं जो सम्पूर्ण जीवों के शरण्य है, जिसने अनेकों बार दुर्धर्ष राक्षसों से लोक को मुक्ति दिलायी है।
यह आतं-स्तुति है । मात्र तीन श्लोकों में निबद्ध है। देवतालोग कहते हैं --अब तक कोई रक्षक नहीं मिला।' हे तात! आपने सेना सहित राक्षस रावण का विनाश किया है। अब भयपीड़ित महर्षियों की लवणासुर से रक्षा करें।
जब सामने भय उपस्थित हो तो अभय कोन दिला सकता है जो स्वयं भययुक्त हो । सामर्थ्यवान् हो । श्रीराम को छोड़कर अन्य सभी राजा लवणासुर से परास्त होकर भयभीत हैं।
इस लघु कलेवरीय स्तुति में भगवान श्रीराम के त्रैलोक्यरक्षक, विपत्ति निवारक तथा राक्षस विनाशक स्वरूप को उद्घाटित किया गया
इन्द्रकृत भगवद् स्तुति
इन्द्र जो सदा तपस्वियों से डरते आये हैं, तपस्या में खलल पहुंचाना शायद उनका अन्य कर्तव्यों के साथ यह भी नैतिक कर्तव्य है। वृत्रासुर तपस्या कर रहा है, अपना सब कुछ अपने ज्येष्ठ पुत्र मधुरेश्वर को सौंप चुका है । वह विष्णु का भक्त है, उनका अनन्य सेवक है, फिर भी इन्द्र को चैन कहां, उन्हें डर इस बात से है कि मेरा इन्द्र पद वह छिन न ले । अनागत भय से आतंकित होकर देवेन्द्र भगवान् की स्तुति कर रहे हैं।
इस स्तुति में भगवान् विष्णु के असुर निहन्ता स्वरूप को उद्घाटित किया गया है। सम्पूर्ण भूत समुदाय पर आसन्न भय से रक्षा की याचना करते हैं___ सत्वं प्रसादं लोकानां कुरुष्व सुसमाहितः।
त्वत्कृतेन ही सर्व स्यात् प्रशान्तमरुजं जगत् ॥' १. वाल्मीकि रामायण उत्तरकांड ६१२२ २. तत्रैव ८४।१२-१८ ३. तत्रव ८४.१६
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