________________
४५.
संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
लक्ष्मी है ।' अवतार के कारण का भी उल्लेख मिलता है । राम रावण वधार्थ ही मनुष्य रूप धारण कर सम्पूर्ण भूत समुदाय का मंगल प्रतिपादित किए ।
वे भक्त वांछाकल्पतरु हैं । उनके भक्तलोक उन्हीं की तरह संसार में पूज्य हैं । भगवान् राम भक्तों की सारी कामनाएं स्वयं पूर्ण करते हैं । इस प्रकार इस स्तुति में श्रीराम के परमेश्वरत्व गुण का प्रतिपादन किया गया है |
देवगणकृत शंकर एवं विष्णु की स्तुति'
राक्षस सुकेश के पुत्रों माली, सुमाली और माल्यवान् के आतंक से आतंकित होकर देव, ऋषि आदि भगवान् शंकर की शरणागति ग्रहण करते हैं । आठ अनुष्टुप् श्लोकों में भगवान् शंकर की अभ्यर्थना की गई है । भगवान् शंकर जगत् की सृष्टि और संहार करने वाले, अजन्मा, अव्यक्त, रूपधारी, सम्पूर्ण जगत् के आधार आराध्यदेव और परम गुरु हैं। कामनाशक, त्रिपुरविनाशक और त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर से देवतालोग अपनी रक्षा के लिए याचना करते हैं, क्योंकि वे अभयदाता हैं
तन्नोदेव भयार्तानामभयं दातुमर्हसि ।
अशिवं वपुरास्थाय जहि वै देवकण्टकान् ॥"
इस स्तुति में भगवान् शंकर के लिए विभिन्न साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग किया गया है । वे कपर्दी, नील लोहित, प्रजाध्यक्ष, कामनाशक, त्रिपुर विनाशक आदि हैं ।
भगवान् शंकर द्वारा निर्दिष्ट किए जाने पर देवगण विष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति करते हैं । देव लोग अत्यन्त घबराए हुए भगवान् विष्णु के शरणापन्न होते हैं ।
यह आर्त्तस्तुति है । इसमें भगवान् विष्णु के विभिन्न स्वरूपों पर प्रकाश डाला गया है । वे शंखचक्रगदाधर हैं, मधुसूदन हैं, सुरेश्वर हैं । एक सुन्दर उपमा का प्रयोग भगवान् विष्णु की भक्तवत्सलता को प्रतिपादित करने के लिए किया गया है
नुदत्वं नो भयं देव नोहारमिव भास्करः । "
हे प्रभो ! जैसे कुहरे को सूर्यदेव नष्ट कर देते हैं वैसे ही समराङ्गण में राक्षस का बध कर हमारे भय को दूर कीजिए ।!
१. वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड ११८।२७
२. तत्रैव ११८।२८
३. तत्रैव, उत्तरकाण्ड षष्ठ अध्याय
४. तत्रैव ६८
५. तत्रैव ६।१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org