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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन . त्वं नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्यया।' विष्णु ही सबके परम शरण्य एवं परंतप-शत्रु विघातक हैं, देवाधिदेव है। .. देव प्रार्थना से प्रसन्न देवाधिदेव विष्णु दशरथ के यहां मनुज रूप में अवतार लेकर देवशत्रु रावण का विनाश करने लिए देवों को आश्वासन देते हैं। इस महान् उपकार से उपकृत होकर देवता, ऋषि, गन्धर्व आदि भगवान् की पुनः स्तुति करते हैं । दो वंशस्थ वृतात्मक इस स्तुति में उपकार एवं भय दोनों भाव मिश्रित हैं। रावण को ससैन्य जड़ से उखाड़ डालने की प्रार्थना की गई है। इस प्रकार इस स्तुति में विष्णु के सर्वसमर्थ एवं भक्तवत्सल स्वरूप के अतिरिक्त अवतारवाद पर भी प्रकाश पड़ता है। लोकमंगल के लिए एवं विपत्तियों से भक्तों के त्राणार्थ भगवान परमब्रह्म परमेश्वर विभिन्न रूपों में अवतरित होते हैं। आदित्य हृदय स्तोत्र (युद्धकाण्ड १०५) जगत्कल्याण एवं दुर्धर्ष शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए प्राचीन काल से ही विभिन्न देवों के प्रति स्तोत्र समर्पित करने की परम्परा रही है। रणक्षेत्र में मुनि अगस्त्य से उपदिष्ट दाशरथि राम सामने खड़ा प्रबल प्रतिपक्षी के ऊपर विजय प्राप्ति के लिए भगवान् भुवनभास्कर के चरणों में उनकी विभिन्न लीला-रूप-गुणों को प्रतिपादित करने वाले विशेषणों से युक्त स्तोत्र समर्पित करते हैं । यह सकाम स्तुति है। अगस्त्य मुनि से सूर्य के प्रताप, अद्भुत सामर्थ्य को सुनकर राम के हृदय से सहज ही स्तोत्र स्फूर्त होने लगता है, जिसका पूर्व संस्कार मुनि के द्वारा उपदिष्ट होने के कारण व्याप्त था रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् । पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥ भास्कर के विशेष स्वरूप के विवेचन के पहले थोड़ा इस स्तोत्र के महत्त्व पर भी प्रकाश डालना आवश्यक है। स्वयं मुनि अगस्त्य ने ही इसके महत्त्व को समझा दिया है-इस गोपनीय स्तोत्र का नाम "आदित्य हृदय" है । यह परम पवित्र तथा सम्पूर्ण शत्रुओं का विघातक है । इसके जप से सदा विजय प्राप्ति होती है। यह नित्य, अक्षय एवं परम कल्याणमय स्तोत्र है। सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है । इससे सब पापों का विनाश हो जाता है। १. वाल्मीकि रामायण-बालकांड १।१५।१९ २. तत्रैव-युद्धकांड १०५।६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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