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संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा भूत हो गयी हैं । हे परम शोभासम्पन्न ! अब तुम मेरे हृदय रूपी सिंहासन पर राजा की भांति विराजमान हो जाओ और मेरे सोमस्वरूप निर्लिप्त आत्मार्पण को स्वीकार करो ।'
५. ऐश्वर्य, धन, पुत्र-पौत्रादि, आयुष्य, बुद्धिप्रशांति, निरोग, विजय आदि की कामना से ऋग्वेदीय ऋषि अपने उपास्य का आह्वान करते हैं, अपनी वागञ्जलि उस प्रभु के चरणों में समर्पित करते हैं।
६. ऋग्वेदीय स्तुतियों में भक्त और भगवान का सम्बन्ध परिलक्षित होता है। भक्त भगवान के साथ पिता, पुत्र, भाई आदि का सम्बन्ध स्थापित कर निश्चित हो जाता है। अग्नि देव से निवेदित करता है कि हे अग्नि! पिता के समान उपकारक होवो।'
७. स्तुतियों में काव्यतत्त्व भी प्रचुर रूप में पाये जाते हैं। ऋषियों ने उपास्यों की शक्ति के निरूपण के प्रसंग में उपमान और रूपकों की सम्यक् योजना की है । संगीतात्मकता, गेयता और लयात्मकता ऋग्वैदिक स्तोत्रों में पद-पद विद्यमान हैं। प्रथित पाश्चात्त्य विपश्चित मैकडॉनल का अभिमत है कि ऋग्वेद में छन्दोमयता के साथ गेयता भी पायी जाती है तथा समस्त स्तुतियों में संगीत तत्त्व की पूर्ण योजना उपलब्ध है। मैक्समूलर ने स्तुतियों में संगीत के साथ काव्यत्व की उपस्थिति की भी मान्यता प्रदान की है।' आचार्य रामचन्द्र मिश्र के अनुसार-ऋग्वेद में गेयता है। स्तुति परक ऋचाओं में आत्माभिव्यंजना, विचारों की एकरूपता, संक्षिप्तता आदि के अतिरिक्त उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीन स्वरों का भी उपयोग हुआ है, जिन्होंने गेयता के इंगित तत्त्वों के साथ इन ऋचाओं को अधिक संगीतमय बना दिया है।
स्तुतियों में विभिन्न अलंकारों का प्रयोग हुआ है। उपमा तो स्तुतियों का प्राण है । अनेक स्थलों पर सारगर्भित उपमाओं का प्रयोग किया गया है । एक स्थल पर भक्त वरुण की स्तुति करते हुए कहता है कि हे वरुण ! हम अपने स्तुतियों के द्वारा तुम्हारे मन को वैसे ही ढीला करते हैं जिस प्रकार सारथी बंधे अश्व को। जैसे पक्षी अपने घोंसलों की ओर जाते हैं, वैसे ही हे वरुण ! जीवन प्राप्ति के लिए मेरी कामनाएं तुम्हारी ओर भाग रही हैं।
१. ऋग्वेद १०.४३.३ २. तत्रैव १.१.९ ३. ए वैदिक रीडर, पृ० २७-२८ ४. द वेदाज, पृ० ४३ ५. वैदिक साहित्य में गीतितत्त्व-बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पत्रिका, वर्ष ६
अंक ३, पृ० ९
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