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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
पर मुग्ध होकर उसके विभूति तत्त्व को देव के रूप में प्रतिष्ठित किया। जो प्राकृतिक विभूतियां उसके साथ हुई, उसके सुख-दुःख के रक्षक बनी, उन्हें देव मानकर ऋषि उपासना करने लगा। तभी से प्राकृतिक विभूतियां विभिन्न देवों के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। २. मानवीकरण
ऋग्वेदीय स्तुतियों में प्राकृतिक विभूतियों का मानवीकरण किया गया है। उसके स्वरूप मुंह, नाक, कान, हाथ, पैर आदि संपूर्ण शरीर की कल्पना की गई है । उसके रथ, अस्त्र शस्त्र आदि का भी ऋषि अपने विभिन्न स्तुतियों में उल्लेख करता है । उपास्यमान देवों का स्वरूप, परिवार, शक्ति एवं उनकी कार्य क्षमता का उदात्त निरूपण किया गया है। स्तोता आराध्य की मानवाकृति तो प्रस्तुत करता ही है, साथ ही उनके लोकातिशायी गणों का निरूपण भी करता है। ३. आत्मनिवेदन या समर्पण
विश्व के विहड़ वन में जब जीव भटकता हुआ अत्यन्त व्यथित हो उठता है, तब अपने स्रोत, मूलकारण परमसत्ता को याद करने लगता है। असहाय अवस्था में वह उसको पुकार उठता है, यह पुकार ही आत्मनिवेदन या शरणागति है। जब भक्त की भौतिक शक्ति जबाव दे देती है तब वह सर्वात्मना प्रभु चरणों में समर्पित होकर अपनी हृदय की व्यथा को खोलकर रख देता है । स्तुतियों के मूल में यही भावना निहित है। जब शनु:शेप मृत्यु को निश्चित देखता तब वह अपनी हृदय व्यथा नैतिक सम्राट वरुण से निवेदित करता है ।' भक्त अपने उपास्य से निवेदित करता है-हे वरणीय देव ! तुम्हारा प्यारा होकर भी मैं दिन-रात कितने पाप किया करता हैं। इन पापों के बावजूद भी तुमने भोग प्रदान किए हैं। हे पूज्यदेव ये भोग मुझे नहीं चाहिए। मुझे तो अब अपनी शरण प्रदान करो। इन पापों को हटाओ। ४. अनन्यता
भक्त अपने उपास्य को छोड़कर और किसी की उपासना नहीं करता। हिरण्यगर्भ सूक्त का अर्द्धार्क-“कस्मै देवाय हविषा विधेम'' उपास्य के प्रति अनन्यता एवं प्रगाढ़ निष्ठा का सूचक है। भक्त निवेदन करता हैहे बहुतों के द्वारा पुकारे गये प्रभु ! तुम्हारी ओर गया हुआ मन अब और किसी ओर नहीं जाता। मेरी समस्त कामनाएं अब तुम्हारे ही अन्दर केन्द्री१. ऋग्वेद १.२४.११ २. तत्रैव ७.८८.६
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