________________
संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
३५
वह संसारिक भोग वस्तुओं के अतिरिक्त ज्ञान की दात्री भी है । स्तोताओं के हृदय में व्याप्त संसारकत्मय का विनाश कर हृदय को चमकीली किरणों से प्रकाशित करती है ।
भक्त वेचैन है अपनी बात उषा देवी से विनिवेदित करने के लिए । सम्पूर्ण प्राणियों की रक्षा के लिए वह देवी से बार-बार प्रार्थना करता है ।' ऋषि प्रस्कण्व धन, अन्न, यश वीर्य पराक्रम आदि की याचना करता हैहे महती उषा, प्रचुर तथा विविध रूप वाले धन से, पुष्टि कारक अन्न से; सबको जीतने वाले यश से हमें संयुक्त करो। उषा विषयक स्तुतियों में स्तोताओं ने प्रातःकाल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में उसका गुणगान किया है । उषा के स्वरूप के चित्रण में काव्यात्मक सौंदर्य, उदात्तता, ताजगी और नवीनता है । उसके स्वरूप की छटा सबको सम्मोहित, आकर्षित एवं आह्लादित करती है । सौन्दर्य की अप्रतिम सुनरी उषा अपने प्रकाश को किसी से भी नहीं छिपाती । सबके लिए समान रूप से वह अन्धकार को दूर करती है । वह सबको जगाने वाली है इसीलिए वह सबका प्राण है, जीवन है । वह सभी को गति के लिए उत्प्रेरित करती है । स्तोता बार-बार उससे निवेदित करते हैं कि वह सबको दीर्घजीवन, धन, सन्तान एवं प्रकाश प्रदान करे ।
ऋग्वेद में इन देवों के अतिरिक्त निर्जीव पदार्थ पत्थर, कुल्हाड़ी आदि की भी स्तुति की गई है । इससे हमारे ऋषियों का विशाल दृष्टिकोण एवं · परमसत्ता की सर्वव्यापकता का उद्घाटन होता है ।
ऋग्वेदिक स्तुतियों का महत्व
वैदिक ऋषि साक्षात्धर्मा थे । उन्होंने प्राकृतिक विभूतियों का दर्शन कर उनका देव रूप में प्रतिष्ठापन किया । प्रकृति की मोददायिनी गोद में ही उनके जीवन का सवेरा हुआ । प्रकृति के साथ ही वे रम गए और अन्त में प्रकृति में ही विलीन हो गए । प्रकृति के विभूतियों से आकृष्ट होकर ऋषियों ने उनके साथ संबन्ध स्थापित कर अपनी रक्षा, समृद्धि, विकास, शांति आदि के लिए उन शक्तिशाली विभूतियों की विभिन्न प्रकार से स्तुति की। उन स्तुतियों के पर्यालोचन से अधोविन्यस्त रूप में उनका महत्त्व उद्घाटित होता है
१. प्राकृतिक शक्तियों का देव रूप में निरूपण
ऋग्वेदीय ऋषि प्रकृति के रूपलावण्य, भाव सौन्दर्य और शील सौरभ
१. ऋग्वेद १, ४८.१०
२. तत्रैव १.४८.१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org