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संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
द्वितीय सूक्त (१.२५) में वरुण को नैतिक देवता के रूप में चित्रित किया गया है । जाने अनजाने में अपने द्वारा सम्पादित पाप कर्मों के लिए भक्त वरुण से क्षमा याचना करता है। स्तुति के द्वारा स्तुत्य वरुण के क्रोध को शांत करना चाहता है । एक अत्यन्त सुन्दर एवं सारगर्भित उपमा का प्रयोग शुनःशेप करता हैविमृडीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम् ।
गीभिवरुण सीमहि ॥ हे वरुण ! तुम्हारी कृपा के लिए स्तुतियों के द्वारा तुम्हारे मन को ढीला करते हैं- प्रसन्न करते हैं, जिस प्रकार सारथी बंधे हुए अश्व को ढीला करता है।
नैतिक शास्ता होने के कारण मनुष्यों को नैतिक पतन होने पर दण्डित करता है। इसलिए शुनःशेप बार-बार प्रार्थना करता है कि हे वरुण ! यदि तुम्हारे नियमों का उल्लंघन हो गया हो तो उसके लिए हमें अपने शस्त्रों का शिकार मत बनाओ, मुझे मृत्यु मत सौंपो, मुझ पर क्रोध मत करो।
भक्त बार-बार यही प्रार्थना करता है कि वरुण का अवितथ क्रोध मुझे अपना विषय न बनाये । शुनःशेप अपनी स्तुति में सुन्दर-सुन्दर उपमाओं की झड़ी लगा देता है। जैसे पक्षी अपने घोंसले की ओर जाते हैं, उसी तरह हे वरुण ! जीवन प्राप्ति के लिए मेरी कामनाएं तुम्हारी ओर भाग रही हैं।' जिस प्रकार गायें अपनी गोष्ठों की ओर दौड़ती है वैसे ही मेरी स्तुतियां तुम्हारी ओर जाती हैं। सुक्रतु-शोभना कर्मों वाला वरुण आयु प्रदाता है इसलिए भक्त संकटकाल में आयु विवर्धन की याचना करता है-- सः नः विश्वाहा सुक्रतुः आदित्यः सुपथा करत् ।
प्रण आयूंषि तारिषत् ॥ पाप प्रक्षालन के निमित्त की गई अभ्यर्थना से शुन.शेप का हृदय निर्मल हो जाता है, अत: उसके अन्दर पवित्रता प्रवेश करने लगती है। वह उन्मुक्त हृदय से पुकार उठता है--हे वरुण ! मेरे आह्वान को सुनो, मुझ पर अनुग्रह करो। हे मेरे रक्षक ! मैंने सहायता के लिए तुम्हें पुकारा है। १. ऋग्वेद १.२५.३ २. तत्रव १.२५.२ ३. तत्रैव १.२५.४ ४. तत्रैव १.२५.१६ ५. तत्रैव १.२५.१२
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