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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
अपनी शक्ति से वह सभी देवों को अभिभूत किया है। वह वृत्र का हन्ता है तथा पणियों एवं बल नामक असुर को मारकर गायों को मुक्त किया था । इन्द्र अपने स्तोताओं का बड़ा सहायक है । वह धनदाता है । उसकी उदारता के कारण ही उसे मघवन् कहा जाता है ।
इस प्रकार इन्द्र ऋग्वैदिक देवों में अत्यन्त शक्तिशाली, राक्षसों का विनाशक और भक्तों का रक्षक है ।
वरुण
वरुण ऋग्वेद का प्रधान देवता है । लगभग एक दर्जन सूक्तों में उसकी स्तुति की गई है । ऋग्वेद के प्रथम मंडल के २४ वां एवं २५ वां सूक्त अत्यन्त प्रसिद्ध है । यह आर्त्त स्तुति है । ब्राह्मण बालक शुनःशेप अपने ही लोभी पिता को विघातक के रूप में देखकर थर्रा उठता है । मृत्यु आसन्न है । कौन है जो उसे मृत्यु से बचा सकता है ?
उसके हृदय की भावना, अवचेतन मन का सुषुप्त संस्कार और तत्कालीन आसन्न मृत्यु से उत्पन्न शोक तीनों मिलकर एक अद्भुत रसायन तैयार करते हैं, जो स्तुति के रूप में अभिव्यक्त हो जाता है उस सर्जनहार के प्रति जो उसे बचा सके, अभय दिला सके । पुकार उठता है उस देव विशेष को जो सर्वसमर्थ है सर्वशक्तिमान् है । देवता वरुण के चरणों में वह सर्वात्मना समर्पित होकर अपनी प्राणरक्षा की याचना करता है- विगलित हृदय से, एकनिष्ठ हृदय से पूर्ण आस्था के साथ --
तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविभिः । अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा नः आयुः प्रमोषी ॥' वरुण का शौर्य एवं पराक्रम अवितथ है । वध्य शुनःशेप पूर्ण विश्वस्त हो चुका है कि इस घोर विपत्ति में एकमात्र रक्षक वरुणदेव ही है । वह प्राण पुंज को धारण करता है। शुनःशेप याचना करता है कि प्राणरूप किरणें सदा मेरे शरीर में बनी रहें। अजीगर्तात्मज अपने शत्रु विनाश के लिए वरुण से प्रार्थना करता है
अपदे पादा प्रतिघातवेऽकरुतापवक्ता हृदयाविधश्चित् । '
प्रथम सूक्त (१.२४ ) में शुनःशेप बार-बार पाशों से मुक्ति एवं जीवन रक्षा की याचना करता है । इस सूक्त में प्रतिपादित किया गया है कि वरुण की शक्ति एवं साहस अपरिमेय है । वह हरेक विपत्तियों से अपने भक्तों को बचाने में समर्थ है । विभिन्न ओषधियों का स्वामी है और उन्हीं ओषधियों से अपने स्तोताओं का प्राण रक्षण करता है ।
१. ऋग्वेद १.२४.११ २. तत्रैव १.२४.८
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