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संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परम्परा
२९ यज्ञीय रूप पर प्रकाश पड़ता है। वह यज्ञीय देवता हैं, यज्ञ का पुरोहित, ऋत्विज एवं रक्षक है।
मानव के सुख-दुःख में अन्य देवों की अपेक्षा वह अत्यधिक साथ रहता है। इसलिए उसको दमूनस, गृहपति और विश्वपति आदि नामों से पुकारा जाता है। वह स्तोताओं का महान् उपकारक है। उनका मित्र है, जो इसे अतिथियों की भांति घरों में सत्कार करते हैं, तीन बार हवि प्रदान करते हैं।
वह सर्वश्रेष्ठ देव है । एक सम्राट् है । असुर उपाधि का प्रयोग उसके लिए किया जाता है। वह सर्वोच्च प्रकाशमान् देव है। अमरत्व का अभिभावक एवं पति है। ऋग्वेद में वैश्वानर तनूनपात्, नाराशंस, जातवेदस् आदि नामों से भी इसकी स्तुति की गई है। इसे सर्वतोप्रज्ञावाला, सत्यस्वरूप तथा अतिशय कीत्तिवाला कहा गया है।
इस प्रकार अग्नि यज्ञ का देवता, रत्नों को धारण करने वाला तथा अपने उपासकों का महान् उपकारक है। इन्द्र
इन्द्र वैदिक आर्यों का प्रमुख देवता है । ऋग्वेद में लगभग २५० स्वतंत्र सूक्तों में तथा अन्य देवों के साथ भी ५० सूक्तों में इसकी स्तुति की गई है। इन्द्र अपने उपासकों का महान् उपकारक तथा अद्भुत पराक्रम शाली है। अपने पराक्रम से सम्पूर्ण संसार को आक्रान्त कर उसका स्वामी बन बैठा।
इन्द्र अपने भक्तों की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करता है । सांसारिक वस्तुओं-ऐश्वर्य, धन, पुत्रादि की कामना से ऋषि इन्द्र की स्तुति करता है। युद्ध में विजय के लिए योद्धागण अपने तरफ बुलाते हैं
यस्मान ऋते विजयन्ते जनासो।
यं युध्यमाना अवसे हवन्ते ॥
वह भक्तों पर आई विपत्तियों को दूर हटाता है। राक्षसों का विनाश कर संसार में शांति स्थापित करता है। वह जल का उत्प्रेरक, पर्वतों को स्थिर करने वाला तथा अन्तरिक्ष का स्तंभक है।
उसके मानवीय रूप का वर्णन भी विभिन्न स्तुतियों में मिलता है। हाथ, सिर, पैर, पेट आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। वह सोमपान का बड़ा शौकीन है, इसलिए उसे सोमपा भी कहा गया है।
इन्द्र एक शक्तिशाली देव के रूप में उभरकर सामने आता है । धुलोक, अंतरिक्ष लोक एवं पृथिवी लोक उसकी महानता को नहीं प्राप्त कर सकते। १. ऋग्वेद २.१२.९
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