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________________ २६ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों की समीक्षात्मक अध्ययन निष्पन्न ऋच् शब्द स्तुत्यर्थक है ।' विभिन्न प्रकार की कामनाओं एवं प्राकृतिक देवों के सौन्दर्य, उनकी दयालुता एवं शरण्यता आदि गुणों से आकृष्ट होकर ऋग्वेदीय ऋषि स्तुति में प्रवृत्त होता दिखाई पड़ता है । ' ऋग्वैदिक स्तुतियों के दो विभाग कर सकते हैं-अध्यात्म परक स्तुतियां एवं सांसारिक अभ्युदय की कामना से की गई सकाम स्तुतियां । अध्यात्मपरक स्तुतियां जिन स्तुतियों में प्राकृतिक देवविभूतियों के अतिरिक्त सृष्टि, ब्रह्माण्ड, जीव, मन, आत्मा, परमात्मा, स्वराट् आदि का वर्णन हो उन्हीं स्तुतियों को इस संवर्ग के अन्तर्गत रखा गया हैं । इन सूक्तों में परमात्मा के स्वरूप, उनकी सर्वव्यापकता, सर्वश्रेष्ठता एवं लोकातीत रूप का प्रतिपादन किया गया है । सृष्टि के स्वयंभू शासक के रूप में उनका निरूपण कर सृष्टि का मूल कारण भी उन्हें बताया गया है। कुछ स्तुतियों का विवेचन यहां प्रस्तुत है— १. पुरुषसूक्त ऋग्वेद (१०.१०) पुरुषसूक्त में उस परमसत्ता की विभूतियों का गान किया गया है, जिसका स्वरूप विलक्षण है । वह विराट् है, अनन्त है । वह ब्रह्माण्ड में भी है और उसके बाहर भी है । वह सर्वव्यापक और विश्वातीत है । वह साकार भी है निराकार भी है । वह दिग्व्यापी होते हुए भी दिग् से परे है । इस सूक्त में सर्वेश्वरवाद की झलक मिलती है - " पुरुष एवेदंसर्वम्" वह सर्वकाल व्यापक होते हुए भी कालातीत है । वह भौतिकता और अमरत्व दोनों का स्वामी है । उसी से संपूर्ण सृष्टि निःसृत होती है । वह सृष्टि का उपादान कारण एवं निमित्त कारण दोनों है । उसकी समस्त विभूतियों का वर्णन नहीं किया जा सकता है । उस पुरुष की महिमा का जितना ही वर्णन किया जाए वह वर्णन करने वालों की दृष्टि में भले ही अधिक हो परन्तु जिसका वर्णन किया जा रहा है उसकी दृष्टि से वह अवश्य ही कम है। मानव कल्पना जितनी दूर तक जा सकती है उतनी ही उस परम सत्ता की व्याप्ति नहीं हो सकती । अतः ऋषि अपनी सीमा और विवशता को देखते हुए कह उठता है कि पुरुष की महिमा का वर्णन कितना भी क्यों न किया जाए वह उससे भी बढ़कर है । वह एकमेव अद्वितीय पुरुष ही सर्वरूपात्मक होने के लिए स्वयं को हवि के रूप में अर्पित कर देता है। विश्वातीत पुरुष ही समस्त पश्चात्वर्ती रूपों को उत्पन्न करता है। उससे विकसित सृष्टि कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं थी । स्तुतिकार ने उसका वर्णन यज्ञीय रूपक के द्वारा किया है । उसे सर्व हुत १. सिद्धांत कौमुदी - तुदादिगण-- धातुसंख्या १३८६ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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