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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन कुतूहल एवं आश्चर्य से पूर्ण हो जाता है । भक्त वैसा सब कुछ देखने लगता जैसा इस भौतिक संसार में संभव नहीं । श्रीमद्भागवतमहापुराण के सुप्रसिद्ध भक्त अक्रूर की स्तुति भी कुतूहल एवं आश्चर्य मिश्रित है। अभी-अभी श्रीकृष्ण रथ पर थे लेकिन अक्रूर को यमुना जल में दिखाई दे रहे हैं। पुनः अकर ऊपर देखते हैं तो रथ पर श्रीकृष्ण ज्यों के त्यों बैठे हैं। इस प्रकार श्रीकृष्ण के दो रूपों का दर्शन कर अक्रूर आश्चर्य एवं कुतूहल मिश्रित भाषा में पूर्णतः श्रद्धाभाव से प्रभु श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगते हैं। प्रभु की दिव्य झांकी निरखकर अक्रूर हृदय प्रेम से लबालब भर गया। सारा शरीर हर्षावेग से पुलकित हो गया । साहस बटोरकर भगवान् की गद्गद् गिरा में स्तुति करने लगे
नतोऽस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं नारायणं पुरुषमाद्यमव्ययम् । यन्नाभिजातादरविन्दकोशाद् ब्रह्माऽऽविरासीद् यत एष लोकः ॥
शोक एवं भय भी स्तुति-उद्भव के निमित्त हैं। सांसारिक दुःख, आगत विपत्ति एवं प्राणसंकट उपस्थित होने पर जब जीव पूर्णतः असहाय हो जाता है, तब वह सर्वात्मना प्रभु का गुण-कत्थन करने लगता है, क्योंकि अब उसे पूर्ण विश्वास है कि उस स्तव्य को छोड़कर अन्य कोई शक्ति नहीं जो इस आसन्न विपत्ति से बचा सके। ऋग्वेदीय शुन:शेप कृत वरुणस्तुति के मूल में शोक ही है। उसकी पिता ही आज उसकी हत्या के लिए कटार लेकर काल की तरह खड़ा है। इस शोक एवं भयमिश्रित अवस्था में पूर्णनिष्ठा के साथ भगवान् वरुण से रक्षा की याचना करता है । महाभारत में द्रौपदी की स्तुति एवं भागवत में अर्जुन, उत्तरा, गजेन्द्र, देवगण, राजागण की स्तुतियां शोक के धरातल से ही संभूत है । हृदय में विद्यमान करुणा और शोक ही श्रद्धा के साथ शरणागतवत्सल के चरणों में स्तुति के रूप में समर्पित हो जाते हैं ।
___संसारिक अभ्युदय, धन-दौलत, विजय, आयुष्यविवर्धन, पुत्र-पौत्रादि एवं स्वर्ग की प्राप्ति की कामना भी स्तुत्योद्भव में सहायक होती हैं। वेदों में अनेक स्थलों पर धन-दौलत, पुत्र-पौत्रादि की कामना से ऋषि अपने उपास्य की स्तुति में प्रवृत्त होता है । अधोविन्यस्त अग्नि की स्तुति में आयु, स्वास्थ्य, बल, अन्न एवं वीर्य को बढ़ाने तथा दुःख-बाधादि के विनाश की कामना की गई हैअग्ने आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः। .
आरे बाधस्व दुच्छनाम् ॥ अग्ने पवस्व स्वपा अरमे वर्चः सुवीर्यम् ।
बधाय मयि पोषम् ॥ १. श्रीमद्भागवतमहापुराण १०.४०.१ २. ऋग्वेद ९.६६.१९,२१
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