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२. संस्कृत साहित्य में स्तुति काव्य की परंपरा
स्तुति का स्थान हृदय है । स्तुति की भाषा हृदय की भाषा होती है । भक्त की वैयक्तिक अनुभूतियों की शाब्दिक अभिव्यक्ति स्तुति है, जिसमें उपास्य के गुण कीर्तन की ही प्रधानता होती है । भक्त अपने हृदय को उपास्य के समीप विवृत कर देता है, जिससे भक्त में उपास्य के प्रति एकनिष्ठता तो आती ही है, उसका हृदय भी आवरण रहित होकर मुक्त रूप में अपने वास्तविक स्थिति में उपस्थित हो जाता है । स्तोता की भाषा मानव हृदय की भाषा होती है । वह सम्पूर्ण कर्त्तव्याकर्त्तव्यों को अपने स्तव्य के प्रति समर्पित कर निश्चित हो जाता है । अपना सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, राग-द्वेष, आसक्ति-विरक्ति, कुतूहल, आश्चर्य, उद्वेग, भय आदि अपने सम्पूर्ण हृदयस्थ भावनाओं को प्रभु के चरणों में न्योछावर कर देता है, उसके सामने खोलकर रख देता है । वह भक्त किसी प्रकार की कटु भाषा का प्रयोग नहीं करता है - वह वही बोलता है, जो उसके अन्तराल से ध्वनित है । अतएव भक्त के हृदय में स्थित भावनाओं का प्रकाशन स्तुति काव्य में होता है ।
स्तुति में भाव तत्त्व की प्रधानता होती है, वस्तु तत्त्व नगण्य हो जाता है । गेयता, लयात्मकता, रसनीयता, रमणीयता एवं भक्त का हृदयोद्गार समन्वित रूप में उत्कृष्ट काव्य का सर्जन करते हैं, जिसमें 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' 'रमणीयार्थः प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्' की शास्त्रीय परिभाषा सम्पूर्ण तया संघटित होती है । तात्पर्य यह है कि स्तुतिकाव्य में आह्लादैकमयी वृत्ति की प्रधानता है ।
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स्तुति का प्रारम्भ सहज अन्तःप्रेरणा से होता है । अदृश्य सत्ता, प्राकृतिक विभूतियों के ज्ञान से उनके प्रति पूज्य भाव या श्रद्धा भाव का उदय हो जाता है, तब भक्त हृदय से उन्हीं के विविध गुणों का गायन करने लगता है । स्तुति में ज्ञान और भावतत्त्व दोनों की प्रधानता होती है । ज्ञान के द्वारा स्तव्य को या किसी विभूति को जानते हैं, स्वयं के प्रति उनकी अनुकूलता जानकर श्रद्धा भाव से समन्वित विगलित हृदय के धरातल से स्तुति काव्यांजलियां उन्हीं के प्रति समर्पित हो जाती हैं ।
कुतूहल एवं आश्चर्य भी स्तुति प्रादुर्भाव का कारण हैं । भगवान् की दिव्य विभूति, दिव्य रूप सौन्दर्य, लीला, सामर्थ्य आदि का दर्शन कर हृदय
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