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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन बनकर रक्षा करने के लिए और भक्तराज की जन्म जन्मातर की साधना सफल हो जाती है । प्रभु दर्शन से शेष कल्मप भी अशेष हो जाता है..
सोऽन्तःसरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम् । उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायणाखिलगरो भगवन्नमस्ते ॥
स्तुति से भाव की शुद्धि, हृदयशुद्धि, क्रियाशुद्धि, शरीरशुद्धि, कुलशुद्धि और वाक्शुद्धि होती है । भाव और हृदय की शुद्धि सबसे बड़ी पवित्रता है, वही प्रत्येक कार्य में उत्कृष्टता का हेतु है, और यह संभव है अपने उपास्य के प्रति समर्पित परमरसमयी स्तुतियों के द्वारा । स्तुति ऐसी गांगेय-धारा है जो वक्ता श्रोता सबको कृष्णमय बना देती है___यंत्संश्रयान्निगदिते लभते सुवक्ता श्रोतापि कृष्णसमतामलमन्यधर्मः ।
तभी तो भक्त संसार का संपूर्ण ऐश्वर्य, महेन्द्रराज्य, स्वर्गाधिपत्य और मोक्ष का भी परित्याग कर सिर्फ प्रभु के गुण कीर्तन की ही याचना करता है ।' संपूर्ण मनोवृत्तियों सहित इन्द्रियों को भी भगवत्सेवा में ही लगाना चाहता है
वाणीगुणानुकथने श्रवणं कथायां हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोः । स्मृत्वां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे दृष्टिः सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम् ॥
स्तुतियों का परम लक्ष्य स्तुति ही है । भक्त भगवत्गुण, कथा श्रवण, गायन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहता। वह ऐसा कुछ भी नहीं चाहता जहां पर प्रभु के गुणों की वंशी सुनाई न पड़ती है । वह दस हजार कान की याचना करता है, जिससे सिर्फ प्रभु के लीला गुणों को ही सुनता रहे।
महत्तमान्तहंदयान्मुखच्युतो विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः॥
इस प्रकार स्तुतियों के द्वारा दुःख विनाश, शाश्वतपद, परम-शान्ति, हृदयहार की चरणरति, प्रेमा भक्ति, उपास्य के प्रति परम विश्वास और मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है । उपर्युक्त स्तुति के गौण फल हैं । मुख्य फल तो केवल स्तुति ही है ।
१. श्रीमद्भागव ८.३.३२ २. भागवत महात्म्य प्रथम, ३.७४ ३. भागवतमहापुराण ६.११.२५ ४. तत्रैव १०.१०.३२ ५. तत्रैव ४२०.२९
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