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________________ स्तुति : अर्थ और स्वरूप सगुण होकर वह उसका भाई-बन्धु बन जाता है।' भगवन्नाम-गुणकथनादि के श्रवण से भक्ति पूर्ण होती है। उपास्य के प्रति श्रद्धा दढ़ हो जाती है। भक्ति होते ही सांसारिक मोह, भय आदि का विनाश हो जाता है । इसीलिए भक्ति को शोकमोहभयापहा, आत्मरजस्तमोपहा' कहा गया है । प्रभु के नाम गुण कत्थन, कीर्तन से स्तोता भगवद्भक्ति, सिद्धि एवं संसार-मुक्ति को प्राप्त कर लेता है : यः श्रद्धयैतत् भगवत्प्रियाणां पाण्डोः सुतानामपि संप्रयाणम् । शृणोत्यलं स्वस्त्ययनं पवित्रं लब्ध्वा हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम् ।। पृथाप्यनुश्रुत्य धनंजयोदितं नाशं यदूनां भगवदति च ताम् । एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे निवेशितात्मोपरराम संसृतेः ॥ स्तुति द्वारा बड़ी-बड़ी विपत्तियों से मुक्ति मिलती है। प्राण संकट उपस्थित होने पर स्तुति ही एक मात्र संबल बच जाता है । गजेन्द्र, उत्तरा, द्रौपदी, अर्जुन आदि भक्तजन ऐसी ही अवस्था में अपने उपास्य की स्तुति करते हैं, जब तक अपनी शक्ति काम आती है, अपने लोगों पर, अपने बल पौरूष पर प्रभूत अभिमान होता है, तब तक उनकी याद नहीं आती है । जब मृत्यु मुख धीरे-धीरे निकट आता दिखाई पड़ता है, सारे संबल निरर्थक हो जाते हैं, तब सांसारिक जीव का, जो कुछ क्षण पहले अपने पराक्रम, धैर्य, परिजन पुरजन आदि के गर्व से गुम्पित था, कि अचानक उसका धैर्य टूट जाता है, उसका पाषाण हृदय विगलित हो जाता है, हृदयस्थ कल्मष नयनसलिल की धारा के साथ प्रवाहित हो जाता है, सिर्फ स्वच्छ हृदय ही बचा रहता है, तब उसी समय वह प्रभु के यहां सब कुछ समर्पित कर देता है-हे नाथ ! मेरी रक्षा करो यः स्वात्मनीदं निजमाययापितं क्वचिद् विभातं क्वच तत् तिरोहितम् ॥ अविद्धवृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥ यह बात नहीं है कि स्तुति सिर्फ एक पक्षीय है, भक्त की करुण पुकार भक्तवत्सल के यहां नहीं पहुंचती । भक्त से कहीं ज्यादा भगवान् आर्द्र हो जाते हैं-उसकी दर्द कहानी, आर्तपुकार सुनकर । स्वयं आते हैं प्रभु-- निर्गुण और सर्वव्यापक होकर भी अपने प्यारे के लिए सगुण और गरुत्मान १. श्रीमद्भागवत १.८.२१ २. तवैव १.७.७ ३. तत्रैव १.५.२८ ४. तत्रैव १.१५.५१ ५. तत्रैव १.१५.३३ ६. तत्रैव ८.३.४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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