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________________ स्तुति : अर्थ और स्वरूप पाहि-पाहि महायोगिन् वेव-देव जगत्पते । नान्यं त्वदमयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ॥ इस प्रकार उस समर्थ से याचना करता है, इस विश्वास के साथ कि अब वही बचा सकता है-इस महाघोर विपद् की बेला में। जब मनुष्य सम्पूर्ण लौकिक साधनों का कार्यान्वयन कर विश्रांत हो जाता है, सब तरफ से केवल घनान्धकार-निराशा ही दिखाई पड़ती तब अपने आपको पूर्णत : असुरक्षित, असहाय समझकर प्रभु की शरणागति ग्रहण करता है । हृदय में ज्यों ही अनन्यता और सम्पूर्ण समर्पण की भावना आ जाती है त्योंही उसके मन-वाणी और आंसूओं में इतनी शक्ति हो जाती है कि भगवान् को वहां आना पड़ता है।। ___ यही स्थिति द्रौपदी, उत्तरा, अर्जुन, गजेन्द्र, नपगण, जीव, गोपियां, नागपत्नियां आदि की हैं । द्रौपदी और गजेन्द्र की स्थिति कुछ यों है कि उन दोनों की आत्मीयों की शक्ति निष्फल हो गयी। द्रौपदी का जिन पर पूर्णतः भरोसा था, जिन्हें पाकर अपने आपको सौभाग्यवती समझती थी, उन्हें निश्चेष्ट, काष्ठमूर्तिवत् देखकर असहाय हो जाती है, क्षणभर में वह निर्वस्त्रा होने वाली है, रजस्वला स्थिति में हाय ! हाय ! अब कौन बचायेगा ! तभी अवचेतन मन में स्थित वशिष्ठ का उपदेश स्मरण आ जाता है--"विपत्तिकाल में प्रभु का स्मरण करना चाहिए"२ यही संस्कार उस आपत्तकाल में उद्रिक्त हो जाता है और तब वह पूर्ण श्रद्धा और अखंड विश्वास के साथ उन्हें पुकारती है जो द्वारिकावासी है, गोपीजन प्रिय है और भक्तों के परम आश्रय है गोविन्द द्वारिकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय । कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव ॥' गजेन्द्र को क्षणभर में अब ग्राह निगल ही जायेगा। केवल शरीर का अग्रभाग ही जलमग्न होने से बचा है। प्राक्तन् संस्कार वशात् परमजप प्रभु चरणों में समर्पित करता है । सर्वात्मना श्रद्धा और विश्वास के साथ अकिंचन और अनन्यगतिक गजेन्द्र उसी की शरणागति ग्रहण करता है यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम् । योऽस्मात् परमास्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥ स्तुतियों में उपकार भावना की प्रधानता होती है। समर्थ के द्वारा १. श्रीमद्भागवत १.८.९ २. महाभारत-सभापर्व अ०६८ ३. तत्रैव सभापर्व ६८।४१ ४. श्रीमद्भागवत ८.३.३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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