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उपास्य के प्रति समर्पित हो जाती है ।
जब मन की वृत्तियां सत्वावस्था में स्थापित हो जाती है, उनका बाह्य भ्रमण सम्बन्ध स्थगित हो जाता है तथा किसी उपास्य या गुणखनि के प्रति श्रद्धा और विश्वास से पूर्ण हो जाती है तभी स्तुति का प्रारम्भ होता है ।
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
मनोविज्ञान मन की तीन मुख्य वृत्तियां मानता है
१. ज्ञान
२. भावना और
३. क्रिया ।
प्रत्येक मानसिक अवस्था में इन तीनों का साहचर्य होता है, लेकिन
एक अवस्था में एक ही का आधिक्य होता है ।
अपरिमित शक्ति का ज्ञान अद्भुत कार्यों, उपकार
प्रथमावस्था में किसी के माहात्म्य, गुण, होता है, तब उसके द्वारा सम्पादित विभिन्न कार्यों को देखकर उसके प्रति श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न होता है। श्रद्धा और विश्वास जब उद्रिक्त हो जाते हैं, तब भक्त विगलित होकर स्तुति गायन करने लगता है । ध्यान रहे इस क्रिया का सम्बन्ध उसके अवचेतन मन से ही होता है ।
स्तुतियों में मन की द्वितीय अवस्था भावना की प्रधानता होती है । भावना के अन्तर्गत अनेक वृत्तियां होती है । प्रमुखतः वे वृत्तियां तीन रूपों में प्रतिपादित हो सकती है
१. देहात्मक - सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि ।
२. आवेशात्मक - भय-क्रोध, हर्ष-विषाद, लोभ- आशा, दया, सहानुभूति आदि ।
३. रसात्मक- - श्रद्धा और प्रेम |
स्तुति का प्रादुर्भाव आवेशात्मक और रसात्मक स्थिति में होता है । जब मनुष्य किसी आशा, हर्ष, दया, भय आदि से युक्त हो जाता है तब उसकी चित्तवृत्तियां विकसित हो जाती हैं, और उनका सम्बन्ध अवचेतन मन से स्थापित हो जाता है । उस अवस्था में किसी गुणज्ञ, सर्वसमर्थ, अव्यय के प्रति पूर्व से विद्यमान श्रद्धा और विश्वास काम आ जाता है । भक्त हृदय में पूर्ण विश्वास है कि आगत विपत्ति से उसकी रक्षा वह अनन्त ही कर सकता है । उस समय जब प्राण संकट उपस्थित है— सारे सम्बन्धी इस विपत्ति को टालने में असमर्थ हो चुके हैं - अपनी भी शक्ति समाप्त हो चुकी है तब
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