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स्तुति : अर्थ और स्वरूप १५. शरणागति
स्तुतियों में शरणागति की प्रधानता होती है। सांसारिक भय से पीड़ित होकर जीव सत्यात्मक प्रभु की शरणागति ग्रहण करता है--
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥
मृत्यु रूप कराल व्याल से भीत जीव उसी परमशरण्य के चरणों में उपस्थित होता है। जब जीव मात्र में स्थित घमंड का निमर्दन हो जाता है, तब वह प्रभु की शरणागति ग्रहण करता है। सम्पूर्ण संसार के भाई-बन्धु, सुत-गेह आदि का परित्याग कर जीव शिवस्वरूप गति प्राप्त करता है। मृत्यु संकट उपस्थित होने पर परमेश्वर ही एकमात्र रक्षक है। स्तुति का मनोवैज्ञानिक आधार
_ स्तुति सच्ची श्रद्धा, शरणागति और आत्मसमर्पण का रूपांतर है। यह परमेश्वर रूप महाशक्ति से वार्तालाप करने की अत्यन्त सरल आध्यात्मिक प्रणाली है । जिस महाशक्ति से यह अनन्त ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ है, लालित पालित हो रहा है, उससे सम्बन्ध स्थापित करने का अत्यन्त ऋजु एवं अवितथ मार्ग स्तुति या प्रार्थना है । भक्त परमानन्द स्वरूप परमात्मा से अपने हृदय के अकृत्रिम लयात्मक शब्दों के द्वारा सम्बन्ध जोड़ लेता है।
स्तुति मनुष्य के मन को समस्त विशृंखलित एवं अनेक दिशाओं में भटकने वाली वृत्तियों को एक केन्द्र पर एकाग्र करने वाले मानसिक व्यायाम का नाम है, जिसमें हृदय पक्ष की प्रधानता होती है।
मनुष्य के चेतन मन के अतिरिक्त एक अवचेतन और अत्यन्त गुह्य मन भी होता है। उसकी शक्ति अपरिमित तथा अनन्त होती है। वह अनन्तज्ञान, अनन्त अनुभूति , अनन्त भावनाओं से युक्त रहता है । इसी अवचेतन मन की पृष्ठभूमि से समुद्भूत श्रद्धायुक्त चेतना की शाब्दिक अभिव्यक्ति का नाम है 'स्तुति'।
___ जब तक मन में श्रद्धा या विश्वास उद्रेक नहीं होता तब तक स्तुति का प्रणयन नहीं हो सकता । विविधकल्मषयुक्त मानवहृदय में जब श्रद्धा और विश्वास का सन्निवेश होता है तो वह अत्यन्त पवित्र हो जाता है और अनायास ही उसके हृदय से मधुमय शब्दों की पुष्पांजलि अपने हृदयहार के प्रति, १. श्रीमद्भागवत १०.२.२६ २. तत्रैव १०.३.२७ ३. तत्रैव १०.२७.१३ ४. तत्रव १०.२९.३१ ५. तत्रैव १.८.९
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