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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन सम्पूर्ण वेद स्तुति में अद्वैत की प्रतिष्ठापना की गई है।' ११. भावसान्द्रता भाव सांद्रता स्तुति का प्राण तत्त्व है। स्तोता अपनी रागात्मक अनुभूति के द्वारा उपास्य को भी भावात्मक बना देता है । जब भाव विगलित होकर उपास्य के चरणों को स्पर्श करता है तब अनुभूति सान्द्र होती है । यही कारण है कि अनुभूति के अनुसार ही भक्त एक ही आराध्य के विभिन्न रूपों की आराधना किंवा स्तुति करता है। १२. संगीतात्मकता यह स्तुति का प्रमुख तत्त्व है। भक्त जब एकचित्त होकर प्रभु के लीला-रूपों का ध्यान करता है तो स्वत: संगीतमय स्वर लहरी प्रस्फुटित हो जाती है। स्तुति एक विशिष्ट लय एवं संगीतमय ध्वनि से युक्त होती है। स्तुति में गेयता की प्रधानता रहती है। जब भगवान् अन्तर्धान हो जाते हैं तब गोपियां प्रभु की अत्यन्त हृदयावर्जक भक्तजनाकर्षक गीत गाने लगती जयति तेऽधिकं जन्मना वजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि। दयित दृश्यतां दिक्षु तावकाः त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १३. सरलता एवं नैसगिता स्तुतियों में कृत्रिमता एवं परुषता का अत्यन्ताभाव होता है । सहजवृत्ति एवं नैसर्गिकता की प्रधानता होती है। भक्त उपास्य के उपकार भावना से उण्कृत होकर, संकट काल में या सहजभाव में प्रभु के प्रति स्तुति करने लगता है । उसके शब्दों में सरलता होती है। १४. माङ्गलिक चेतना ___ स्तुतियों का मांगलिक स्वरूप भी दृष्टिगोचर होता है। भक्त जगत के उद्धारार्थ, राक्षसमर्दनार्थ प्रभु की स्तुति करता है। वह मोक्षादि का भी परित्याग कर संसार के सम्पूर्ण प्राणियों का दुःख अपने ऊपर लेना चाहता है, इसके लिए बार-बार वह संसार को स्वीकार करने में तनिक भी नहीं हिचकता--- नकामयेऽहं गतिमीश्वरात् परामष्टद्धि युक्तामपुनर्भवं वा। भाति प्रपऽद्योखिल देहभाजामन्तः स्थितो येन भवन्त्यदुःखा ॥२ १. श्रीमद्भागवत १०.८७ सम्पूर्ण अध्याय २. तत्रैव १०.३१.१ ३. तत्रैव ९.२१.१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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