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________________ स्तुति : अर्थ और स्वरूप अतएव स्तुति में एकाग्रता अत्यन्तावश्यक है। ७. प्राक्तन संस्कार स्तुति में प्राक्तन् संस्कार भी आवश्यक है । वृत्रासुर एवं गजेन्द्र प्राक्तन् संस्कार वशात् ही प्रभु की स्तुति करते हैं।' पूर्व जन्म में सम्पादित भक्ति, उपासना से उत्थित संस्कार ही अपर योनि में (पशु, राक्षस आदि योनि में) भी प्रकट हो जाते हैं जो स्तुति के मूल हैं। ८. भवरोगोपरता स्तुति में भक्त भवरोग से उपरत हो जाता है। भक्त प्रभु के चरणों में स्थित होकर सांसारिक कष्ट, माया, ईर्ष्या द्वेषादि भव रोगों से रहित हो प्रभु की उपासना में लीन हो जाता है। ९. आत्मविलय स्तुति में आत्मविलयन की प्रधानता होती है। कुछ ऐसी स्तुतियां है जिसमें भक्त भगवत्गुण के अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते-करते अन्त में अपना भी निषेध कर स्तव्य स्वरूप ही हो जाता है। पितामह भीष्म स्तुति करते-करते अन्त में मन, वाणी और दृष्टि की वृत्तियों से आत्मस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण में लीन हो जाते हैं - कृष्ण एव भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभिः । आत्मान्यात्मानमावेश्य सोऽन्तश्श्वास उपारमत ॥' १०. अद्वैत को प्रतिष्ठा "एक सदविप्रा वहुधा वदन्ति'' इस आर्ष वैखरी का भागवतीय स्तुतियों में पूर्णत: विकास दृष्टिगोचर होता है। या यों कहिए कि स्तुतियों में इसका विस्तृत व्याख्यान उपलब्ध है । भगवान् समस्त जीवों के बाहर एवं भीतर एकरस स्थित हैं, इन्द्रियागोचर, प्रकृति से परे, आदि-पुरुष हैं। भगवान् (भक्त का स्तव्य) ही सभी देवताओं के रूप में है, परन्तु वे वस्तुत : एक ही हैं । भक्त लोग उनकी विभिन्न रूपों में उपासना करते हैं। प्रभु केवल एक हैं परन्तु अपने कार्य रूप जगत् में स्वेच्छा से अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं। १. श्रीमद्भागवत ६.११ तथा ८.३ २. तत्रैव १०.८७.४१ ३. तत्रव १.९.४३ ४. तत्रैव १.८.१८ ५. तत्रव १०.४०.९ ६. तत्रैव १०.४८.२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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