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श्रीमद्भागवत की स्तुयियों का समीक्षात्मक अध्ययन
यह तल्लीनता, या लीनता सहज अन्तःप्रेरणा का ही प्रतिफलन है । ४. उपास्य के साथ सम्बन्ध
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भक्त स्तुति के माध्यम से क्षणभर में उपास्य के साथ भाई, पुत्र, पति आदि लौकिक सम्बन्ध स्थापित कर लेता है । परमब्रह्म परमेश्वर भक्त स्तुति से प्रसन्न होकर उसके भाई बन्धु आदि के रूप में हो जाते हैं । कुन्ती अपने उपास्य को दो रूपों में देखती है - ( १ ) परमब्रह्म परमेश्वर जो अव्यय अनंत, आदि है । (२) वे सगे सम्बन्धी भाई भानजे हैं
कृष्णाय वासुदेवाय देवकी नन्दनाय च । मंदगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ॥
५. उपास्य हो परम लक्ष्य
स्तोता का परम लक्ष्य उसका उपास्य ही होता है । भक्त नाक- पृष्ट, महेन्द्रराज्य, रसाधिपत्य आदि सब कुछ का परित्याग कर केवल प्रभुचरणरज की ही अभिलाषा रखता है
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न नाक पृष्ठं नच पारमेष्ठ्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् । न योगसिद्धिरपुनर्भवं वा समञ्जसत्वा विरहय्य कांक्षे ॥ प्रभु चरणों की सेवा को छोड़ जन्म-मृत्यु- उच्छेदक मोक्ष की भी कामना नहीं करता ।
वह वैसा कुछ भी नहीं चाहता जहां प्रभु चरणाम्बुजासव की प्राप्ति न हो । अपने प्रभु के प्रति वह एकनिष्ठ रहता है ।
६. एकाग्रता
एकाग्रता स्तुति का मूल है । जब तक चित्तवृत्तियां स्थिर नहीं हो जाती तब तक स्तुति का प्रणयन नहीं हो सकता । बाहरी विषयों से निवर्तित होकर चित्तवृत्तियां जब उपास्य के चरणों में एकत्रावस्थित हो जाती हैं तभी भक्त के हार्द धरातल से उसके उपास्य से सम्बन्धित नाम-रूप- गुणात्मक स्वर लहरियां स्वतः ही निःसृत होने लगती हैं। भक्त मन को हृदय में एकाग्र करके ही स्तुति करता है-
एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनोहृदि । जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥
१. श्रीमद्भागवतमहापुराण १.८.२१
२. तत्रैव ६.११.२५
३. तत्रैव १०.३६.२७
४. तत्रैव ४.२०.२४ ५. तत्रैव ८.३.१
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