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स्तुति : अर्थ और स्वरूप
विजय सखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ।
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अस्तु कृष्ण आत्मा ।
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रतिर्ममास्तु ।'
२. आत्माभिव्यक्ति
भक्त अपने सांसारिक सुख-दुःखात्मक अनुभूति को प्रभु के चरणों में उड़ेलकर अपना सब कार्य भार उसी पर छोड़ देता है । यह आत्मानुभूति जब स्वाभाविक स्वर लहरी में निजी हर्ष - विषाद की अभिव्यंजना के लिए प्रस्तुत होती है और आराध्य से सहायता की अपेक्षा करती है, तब स्तुति काव्य का आरंभ होता है । विश्वात्मा या किसी विशेष आराध्य के प्रति आत्माभिव्यंजन की व्यापक प्रवृत्ति स्तुति या स्तोत्र को प्रादुर्भूत करती है । जब जीव विशेष संसृतिचक्र में फंस जाता है तो अपने कष्टाधिक्य को प्रभु के चरणों में उड़ेल कर, समर्पित कर उससे उपरत हो जाता है । उन्हीं से अपनी उद्धार की याचना करता है
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति । fi त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदादयो विमोक्षणम् ॥' ३. सहज : अन्तःप्रेरणा
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१. श्रीमद्भागवत १.९.३३,३४,३५
२. तत्रैव ८.३.१९
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स्तुति काव्य में विद्यमान सहज अन्तःप्रेरणा उसे उत्कृष्ट काव्य की कोटि में स्थापित करती है । कविता की अपेक्षा स्तुति में सहज तत्त्व का आधिक्य होता है । भक्त जब कुछ आराध्य से प्राप्त करना चाहता है और उसकी अनंत शक्ति का संबल प्राप्त कर जागतिक प्रपंचों पर विजय लाभ की इच्छा करता है, या बार-बार प्रभु द्वारा किए गये रक्षादि उपकारों से उसका हृदय विगलित हो जाता है, तब वह अपनी सहज अन्तःप्रेरणा से प्रेरित होकर उनके लीला-गुणों में लीन हो जाता है ।
नमस्ये पुरुषं त्वामाद्य मीश्वरं प्रकृतेः परम् । अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्ब हिरवस्थितम् ॥ वह सर्वात्मना प्रभु के चरणों में स्थिर हो जाता है -
इति मतिरूपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूनि ।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहतु
प्रकृतिमुपेयुषि
यद्भवप्रवाहः ॥
३. तत्रैव १.८.१८
४. तत्रैव १.९.३२
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