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स्तुति : अर्थ और स्वरूप
अद्वय रूप है - जो निर्गुण भी है, निराकार भी, और सगुण भी साकार भी है । जो अखंड है अवांछित है, ज्ञाता भी है, ज्ञेय भी है, बुद्ध भी है, बोधक भी है, तीर्ण भी है, तारक भी है, पूर्ण भी है पूरक भी है, आधार भी है, आधेय भी है । सभी जीवों में बाहर-भीतर एक रसावस्थित है । आलम्बन का स्परूप स्वयं आलम्बन के मुख से -
अहं हि सर्वभूतानामादिरन्तोऽन्तरं बहि: । भौतिकानां यथा खं वार्भूर्वायुज्योतिरङ्गनाः ॥ एवं ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्माऽऽत्मना ततः । उभयं मय्यथ परे पश्यतामातमक्षरे ॥'
भागवतीय स्तुतियों के आलम्बन एक ही परब्रह्म परमेश्वर जो निर्गुण व्यापक, लोकातीत, सगुण, सर्वतंत्रस्वतंत्र, सर्वसमर्थ, शरणागतरक्षक, लोकमंगल का प्रतिपादक, अनिष्ट निवारक, भक्तवांछाकल्पतरु, भगवान ईश्वर, स्रष्टा, भर्ता, संहर्ता, कारणों का कारण सर्वाङगसुन्दर आदि गुणों से विभूषित होता है ।
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कुछ स्तुतियों के अवलोकन से आश्रय या आलम्बन तत्व स्पष्ट हो जाता है । श्रीमद्भागवत की प्रथम स्तुति अर्जुन और उत्तरा की है । उत्तरा पर ब्रह्मास्त्र संकट उपस्थित है । उसके सामने वीर, धनुर्धर, पराक्रमी, ज्ञानी, बाप दादे बैठे हैं, लेकिन वह किसी के पास नहीं जाती, क्योंकि वह जानती है कि मृत्यु से एक ही रक्षक है । सहसा वह उसी का शरणापन्न होती है और भगवान् शरणागत की रक्षा भी करते हैं अर्थात् जो सामने उपस्थित मृत्यु भय से अभय दिला सके वही स्तुति का आलम्बन है । अन्य सब तो मृत्यु
ग्रास हैं ।
उसके बाद उपकृत होकर कुन्ती स्तुति करती है - किसकी ? यही तो देखना है । और इस प्रश्न का समाधान ही स्तुति का आलम्बन है । वह किसी अल्पसत्व की स्तुति नहीं करती, उसका स्तुत्य नारायण हैं जो सर्वव्यापी हैं, एकरस हैं । कृष्ण, नंदगोपकुमार, अनंत, आत्माराम, शांत आदि अभिधानों से विभूषित हैं । उनका जन्म नहीं होता लेकिन असुरों के विनाश के लिए विविध जन्मधारण करते हैं ।
पितामह भीष्म का " स्तवराज" भागवत में अत्यन्त प्रसिद्ध है । महाप्रयाणिक वेला में गंगापुत्र भीष्म प्रभु श्रीकृष्ण की स्तुति करते हैं । आनंद स्वरूप में स्थित रहते हुए भी विहार की इच्छा से जन्म ग्रहण करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ही भीष्म स्तुति के आलम्बन हैं। उनका सगुण रूप सामान्य नही बल्कि त्रैलोक्य सुन्दर है। ऐसा लगता है कि संपूर्ण सृष्टि का रूप-सौन्दर्य,
१. श्रीमद्भागवतमहापुराण १०.८२.४६-४७
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