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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन घोर दुःख में । स्तुति से स्तोता को संबल मिलता है, अद्भुत शक्ति मिलती है, वह पराक्रमशाली बन जाता है लेकिन चाटुकार खोखला, कमजोर, कायर एवं अविश्वासी हो जाता है। स्तोता को अपने उपास्य के सामर्थ्य पर पूर्ण विश्वास रहता है, लेकिन चाटुकार अपने प्रशंस्य के सामर्थ्य पर सदा संशकित होता है।
निष्काम स्तुतियों में सांसारिक कामना का अभाव रहता है। उनका आलम्बन निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापक, परब्रह्म परमेश्वर है । यहां पर यह प्रश्न स्वाभाविक उठता है कि निर्गुण की, निराकार की स्तुति कैसे हो सकती है ? स्तुति तो गुणकीर्तन है और गुणकीर्तन सगुण का ही हो सकता है । स्वयं भागवतीय स्तोताओं ने ही इस शंका का अनेक स्थलों पर समाधान उपस्थापित किया है। जो निर्गुण, निराकार है वही सगुण, साकार है। लोकमंगल के लिए, भक्तरक्षणार्थ एवं भूतसृष्ट्यर्थ वह निराकार परब्रह्म परमेश्वर ही सगुण साकार हो जाता है
न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपेगुणदोष एव वा। तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥'
अर्थात् उसका न जन्म है, न कर्म, न नाम, न रूप, न गुण, न दोष है। वह निराकार परब्रह्म परमेश्वर ही परेश है, आत्मप्रदीप है, कैवल्यनाथ है, अतिसवलकारण, अपवर्ग स्वरूप है और “अस्मात् परस्माच्च परः" है, वही सगुण साकार हो जाता है, राम, कृष्ण आदि के रूप में अवतरित होता है । श्रुतियों का वचन है-जगत् सृष्ट्यर्थ वह निर्गुण निराकार ही सगुण साकार हो जाता है
अगजगदोक साममखिलशक्त्यवबोधक ते।
क्वचिदजयाऽऽत्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः॥ अब यहां शंका समुत्थित है कि सगुण स्तुतियों का आलम्बन और निर्गुण स्तुतियों के आलम्बन में अन्तर होता है क्या ?
वस्तुतः आलम्बन के निराकार और साकार होने में स्तोता की अपनी दृष्टि, प्रवृत्ति, रूझान, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक क्षमता तथा निष्ठा आदि ही कारण हैं। आलम्बन तो अद्वयरूप है, निराकार और साकार दो रूप नहीं । स्तोता की जैसी दृष्टि या जैसी श्रद्धा होती है वैसा वह अपने उपास्य को, आश्रय को, निराकार या साकार मान बैठता है। अतः इस आधार पर स्तुतियों में कोई भेद नहीं दृष्टिगोचर होता है। भागवतकार के आलम्बन १. श्रीमद्भागवत महापुराण ८.३.८ २. तत्रैव ८.३.३ ३. तत्रैव १०.८७.१४
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