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स्तुति : अर्थ एवं स्वरूप यशोगान, प्रशंसा आदि को स्तुति कहते हैं। प्रभु में विद्यमान गुणों का यथारूप में गायन स्तुति है। प्र उपसर्ग पूर्वक चुरादिगणीय "अर्थ उपपाञ्चायाम्' धातु से क्त एवं टाप करने पर प्रार्थना शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ याचना है । स्तुत्य या उपास्य के गुणों का बार-बार गायन कर उन गुणों की प्राप्ति के लिए सामर्थ्य की याचना प्रार्थना है। अथवा दैन्यभाव से सर्वव्यापक, समर्थ प्रभु से अपने में उनके गुणों के विकास के लिए सामर्थ्य की याचना है । उप उपसर्ग पूर्वक अदादिगणीय "अस भुवि" धातु से "क्त" प्रत्यय एवं "टाप्" प्रत्यय करने पर उपासना शब्द निष्पन्न होता है। उपास्य के गुणों को सम्यग् रूप से धारण करके उसके समीप गमन, आसन उपासना है । जब तक उपास्य-उपासक के गुणों में साम्य नहीं हो जाता, तब तक सम्बन्ध अस्थिर होता है क्योंकि "समानगुणशीलव्यसनेषु मैत्री" की उक्ति प्रसिद्ध है । अतएव भगवत्प्राप्ति के लिए उनके गुणों का मनसा, वचसा और कर्मणा धारण कर उनके समीप स्थिर हो जाना उपासना है। उपासना में उपास्य-उपासक की एकता हो जाती है। इस प्रकार स्तुति की परिणति प्रार्थना में और प्रार्थना की परिणति उपासना में होती है। स्तुति प्रार्थना और उपासना एक दूसरे के पूरक हैं । इन तीनों से युक्त भक्त सद्यः दुस्तरिणी माया को पारकर भगवच्चरणरति प्राप्त कर लेता है। स्तुति और भक्ति
स्तुति और भक्ति में साधन साध्य भाव सम्बन्ध है। उपास्य के गुण, महिमा गायन से उनके प्रति स्तोता की भक्ति दृढ़ हो जाती है, तो कभी उपास्य के विविध गुणों के प्रति, महान कार्यों के कारण आश्चर्य, श्रद्धा, भय, तो कभी उपकृत किए जाने पर भी भक्ति का उद्रेक हो जाता है। यदुनाथ श्रीकृष्ण के द्वारा बार-बार अपने वंशधरों पर उपकार किए जाने के कारण कुन्ती की भक्ति अचला हो जाती है, श्रीकृष्ण चरणों में उसकी निष्ठा अविचल हो जाती है
विमोचिताहं च सहात्मजाविभो त्वयैव नाथेन मुहुविपद्गणात् ।'
औरत्वयि में अनन्य विषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् । रतिमुबहतादद्धा गंगेवैघमुदन्वति ॥
स्तुति से भक्तिपूर्ण हो जाती है और कभी भक्ति रस से सरावोर होने पर भक्त अपने उपास्य की महिमा का स्तुति के माध्यम से विज्ञप्ति करता है। भक्ति रस से सराबोर होने पर अनायास ही उसकी वाग्धारा स्फूर्त होने १. श्रीमद्भागवत महापुराण १.८.२३ २. तत्रैव १.८.४२
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