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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
लगती है और वही वाग्धारा स्तुति संज्ञा से अभिहित होती है । किम्पुरुषवर्ष में स्थित भक्तराज हनुमान अन्य किन्नरों सहित भगवान् की भक्ति से विगलित होकर उनकी स्तुति करते हैं
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यत्तद्विशुद्धानुभवमात्रमेकं स्वतेजसा ध्वस्तगुणव्यवस्थम् । प्रत्यक् प्रशान्तं सुधियोपलम्भनं नामरूपं निरहं प्रपद्ये ॥ '
जल में भगवान् की मनोरम झांकी निरखकर भक्तराज अक्रूरजी का हृदय परमानन्द से लबालब भर गया । उन्हें परमा भक्ति प्राप्त हो गयी, उनका हृदय प्रेमरस से सराबोर हो गया । हृदय की वीणा मधुर स्वरों में शब्द के माध्यम से झंकृत हो गयी, स्तुति की निर्मल सरिता बह चलीनतोऽस्म्यहं त्वाखिल हेतुहेतुं नारायणं पुरुषमाद्यमव्ययम् । यन्नाभिजातादरविन्दकोशात् ब्रह्माऽऽविरासीद् यत एष लोकः ॥ '
महाप्रस्थानिक वेला में महाभागबत भीष्म भक्तिभावित चित से प्रभु की स्तुति करते । प्रभु की अलौकिक, त्रिभुवनकमनीय रूप सौन्दर्य को निहारकर पितामह शल्यजनित कष्ट से पूर्णतः स्वस्थ हो जाते हैं और विधूत - भेद मोह होकर जन्म जन्मान्तर के आराध्य प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों में शाश्वती गति को प्राप्त कर लेते हैं ।
भगवद्गुण कथा, महिमा आदि रूप स्तुति के गायन या श्रवण से अचला भक्ति उत्पन्न होती है । स्तुति करते-करते पितामह भीष्म निश्चला भक्ति को एवं कुन्ती अखण्डात्मिका रति को प्राप्त करती है । मैत्रेय द्वारा भगवान् के विविध लीला गुणों एवं ऐश्वर्य विभूतियों का वर्णन सुनकर भक्त - राज विदुर प्रेम मग्न हो गए तथा भक्तिभाव का उद्रेक होने से उनके आंखों से आंसुओं की धारा बह चली । कुशल वक्ता विरागी शुकदेव से कथा का श्रवण करने से परीक्षित को अचला भक्ति की प्राप्ती हुई, फलस्वरूप सर्पदंश के पहले ही ब्रह्ममय हो गए
ब्रह्मभूतो महायोगी निस्सङ्गरिछन्नसंशयः ॥
स्तुतियों का आलम्बन
श्री मद्भागवत का प्रतिपाद्य परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं श्रीमद्भागवत का प्रत्येक पद श्रीकृष्ण स्वरूप - बोधक है । सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक, लोकातीत, सर्वस्वरूप, सर्वहितरत, भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने
१. तत्रैव ५.१९.४ २. तत्रैव १०.४०.१ ३. तत्रैव क्रमशः - ४. तत्र ४.३१.२८
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तत्रैव १२.६.१०
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- १.९.४३, १.८.४२
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