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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
स्तुति का अर्थ स्तव, स्तोत्र और नुति है। हलायुध कोश में प्रयुक्त अर्थवाद, प्रशंसा, स्तोत्र, ईडा नुति, विकत्थन, स्तव, श्लाघा, वर्णना आदि शब्द स्तुत्यर्थक है। बाणभट्ट के शब्दरत्नाकर में प्रशंसा, नुति, ईडा आदि शब्द स्तुति शब्द के पर्याय के रूप में उपन्यस्त हैं । वैजयन्ती कोश के अनुसार शस्त्र, साम और स्तोत्र स्तुति शब्द के अर्थ हैं।
ऋग्वेद में स्तुति शब्द विभिन्न अवसरों पर अपने उपास्यों के प्रति गाए गए प्रशंसागीत के लिए प्रयुक्त हुआ है। दैवतकांड में यास्क की उक्ति है "जिनकी स्तुति मन्त्रों या सूक्तों में प्रधान रूप से की गई है, उन देवताओं के नामों का संकलन देवतकांड में किया गया है। अर्थात् यहां स्तुति शब्द नाम, गुण, कीर्तन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । दुर्गाचार्य ने "स्तुतिः नामरूपकर्मबन्धुभिः" के द्वारा स्तुति के स्वरूप की ओर निर्देश किया है । प्रत्येक ऋषि किसी न किसी देवता से स्तुति करता है। उस स्तुति में उसकी कोई कामना छिपी रहती है। वह सोचता है कि मैं अमुक वस्तु का स्वामी हो जाऊं या सामर्थ्यवान् हो जाऊं, और इसी अभिलाषा से वह वस्तु को देने में समर्थ देव की स्तुति करने लगता है। वह सामर्थ्यवान् देव ही उसका उपास्य होता है। आचार्य शंकर के मत में भगवत्गुण-संकीर्तन ही स्तुति है । विष्णु सहस्रनामभाष्य में “स्तुवन्त" शब्द का अर्थ "गुण संकीर्त नंकुर्वन्त:" किया है । स्तुति में अपने उपास्य के विविध गुणों का कीर्तन किंवा गायन किया जाता है । आचार्य मधुसूदन ने अपनी व्याख्या में गुणकथन को स्तुति कहा
__ देवीभागवतपुराण में दुर्गा के अभिधान के रूप में तथा श्रीमद्भागवतपुराण में एक स्थल पर प्रतिहर्ता की पत्नी के लिए स्तुति शब्द का
१. अमरकोष १.६.११ २. हलायुध कोश पृ० सं० २५ ३. बाणभट्ट शब्द रत्नाकर-श्लोक संख्या १८१० ४. वैजयन्तीकोश २.३.३५ ५. ऋग्वेद १.८४.२, ६.३४.१ ६. निरूक्त ७११ ७. निरूक्त ७।१ पर दुर्गाचार्य कृत व्याख्या ८. विष्णु सहस्रनाम, श्लोक ४.५ पर शांकरभाष्य ९. शिवमहिम्नस्तोत्र पर मधुसूदनी व्याख्या पृ० १ 'स्तुति मगुणकथनं
तच्च गुणज्ञानाधीनम् ।' १०. देवीभागवतपुराण ४५।१४५ ११. श्रीमद्भागवतपुराण ५.१५.५
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