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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार
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रूप से शयन करते हैं और पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय और पांच प्राण और एक मन इन सोलह कलाओं से युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयों का भोग करते हैं, वे सर्वभूतमय भगवान् मेरी वाणी को अपने गुणों से अलंकृत कर दें ।
इसमें एक कारक के लिए अनेक क्रियाओं एक भगवान्, शरीर का निर्माण करते हैं, उसमें तथा जीव रूप में विषयों का उपभोग करते हैं सुन्दर उदाहरण है ।
दृष्टान्त
का प्रयोग किया गया है । जीव रूप से शयन करते हैं इस प्रकार यह दीपक का
उपमान, उपमेय तथा साधारण धर्म आदि सभी का प्रतिबिम्बन अर्थात् बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव दृष्टान्त में अपेक्षित है । मम्मट ने दृष्टान्त संज्ञा की सार्थकता दो धर्मियों या धमों में सादृश्य के कारण होने वाली अभेद बोध में मानी है । बिम्ब प्रतिबिम्बभाव में धर्म तत्त्वतः भिन्न-भिन्न रहते हैं पर सादृश्य के कारण अभिन्न से प्रतीत होते हैं और उनका दो बार उपादान होता है । अन्त या निश्चय दो में अभिन्नता की निश्चयात्मक प्रतीति के दृष्ट होने के कारण इसे दृष्टान्त कहते हैं । उदाहरण'
न ध्यायमयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः । ते पुनन्तुतत्कालेन दर्शनादेव साधवः ॥
केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएं ही देवता नहीं होती, संत पुरुष ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं क्योंकि तीर्थ और देवता उनका बहुत समय तक सेवन किया जाय तब वे पवित्र करते हैं परन्तु संत पुरुष तो दर्शन मात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं । उक्त उदाहरण में जलमय तीर्थ और पाषाण प्रतिमाएं सन्त पुरुषों के समान तीर्थमय प्रतिपादित हैं । यह उपमेय और उपमान का बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है अतएव यहां दृष्टान्त अलंकार है ।
उदात्त
मम्मट, रुय्यक और विश्वनाथ आदि आचार्य किसी वस्तु की समृद्धि का वर्णन तथा महान् व्यक्ति के चरित्र का उपलक्षण या अन्य प्रस्तुत वस्तु hi अङ्ग होना आदि ये दो रूप उदात्त के मानते हैं ।
श्रीमद्भागवतकार ने अनेक स्थलों पर भगवच्चरित वर्णन या समृद्धि
के वर्णन के लिए उदात्त अलंकार का प्रयोग किया है
१. मम्मट, काव्यप्रकाश १०.१५५ एवं उसकी वृत्ति
२. तत्रैव १०.१७५, रूय्यक अलंकार सर्वस्व ८०-८१ तथा विश्वनाथ सा०
द० १०. १२३
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