________________
२१६
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों की समीक्षात्मक अध्ययन
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्वृषभावनिघ्र ग राजन्यवंशवहनानपवर्गवीर्य । गोविन्द गोद्विजसुरातिहरावतार योगेश्वराखिलगुरो भगवन्नमस्ते।'
श्रीकृष्ण ! अर्जुन के प्यारे सखा ! यदुवंश शिरोमणे ! आप पृथिवी के भार रूप राजवेशधारी दैत्यों को जलाने के लिए अग्नि के समान हैं । आपकी शक्ति अनन्त है । गोविन्द आपका यह अवतार गौ, ब्राह्मण और देवताओं का दुःख मिटाने के लिए ही है। योगेश्वर ! चराचर के गुरु भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करती है।
इसमें भगवान् श्रीकृष्ण के उदात्त चरित्र का निरूपण किया गया है । भगवान श्रीकृष्ण अनन्त, दुःखनिहन्ता तथा दुष्ट विध्वंसक हैं । विरोधाभास
विरोधाभास अलंकार के प्राचीन आचार्यों के द्वारा स्वरूप निरूपण क्रम में विरुद्ध गुण, क्रिया आदि की योजना का तो स्पष्ट शब्दों में उल्लेख है पर यह अभिहित नहीं है कि विरोध तात्त्विक नहीं प्रतिभासिक मात्र होता है । वामन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि विरोध का आभास ही विरोधाभास है। यहां विरोध तात्त्विक नहीं बल्कि आभासिक होता है।।
श्रीमद्भागवत में अनेक स्थलों पर इस अलंकार का प्रयोग मिलता है, विशेषकर स्तुतियों में -
जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्तुरात्मनः ।
तिर्यङ नृषिषु यादःसु तदत्यन्तविडम्बनम् ॥ आप विश्व के आत्मा हैं, विश्वरूप हैं, न आप जन्म लेते हैं, न आप कर्म ही करते हैं। फिर भी आप पशु, पक्षी, जलचर, मनुष्य आदि में जन्म लेते हैं और उन योनियों के अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं । यह आपकी लीला ही तो है।
यहां एक तरफ कहा गया है कि आप न जन्म लेते हैं न कर्म करते हैं फिर आप जन्म भी लेते हैं और कर्म भी करते हैं, यहां विरोध की प्रतीति हो रही है । वस्तुतः यह प्रभुमाया का प्रभाव है। यह प्रतीति यथार्थ नहीं है। अतएव यहां विरोधाभास अलंकार है ! संसृष्टि
तिल-तंडुल न्याय से जहां अनेक अलंकारों की एकत्र स्थिति हो वहां संसृष्टि अलंकार होता है । यथा१. श्रीमद्भागवत १.८.४३ २. वामन, काव्यालंकार सूत्र ४.३.१२ ३. श्रीमद्भागवत १.८.३० ४. मम्मट, काव्यप्रकाश १०.१३९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org