SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भागवत की स्तुतियां : स्रोत, वर्गीकरण एवं वस्तु विश्लेषण ९५ रचयिता तथा समस्त लोकपालों के मुकुटमणि हैं। आप छोटे बड़े सभी जीवों के भाव जानते हैं । आप विज्ञानबल सम्पन्न हैं। आप अपनी माया से ही यह चतुर्मुख रूप और रजोगुण स्वीकार किया है। आपकी उत्पत्ति के वास्तविक कारण को कोई नहीं जानता। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं।' अनन्त प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन कर सनकादि कुमार सफल हो गये। गद्गद् स्वर में उस प्रभु की स्तुति करने लगे। हे अनन्त ! आप सर्वत्र व्याप्त रहते हैं। दुष्टों के हृदय में निवास करते हैं, परन्तु आंखों से ओझल रहते हैं लेकिन आज आपका हम लोग प्रत्यक्ष दर्शन कर रहे हैं । और स्तुति के अन्त में ऋषिगण अपने पूज्य के चरणों में निवेदित करते हैं प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरहूत रूपं तेनेश निवृतिमवापुरलं दृशो नः । तस्मा इदं भगवते नम इद्विद्येम योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीत ॥ हिरण्याक्ष का बध कर जब भगवान वाराह अपने अखण्ड आनन्दमय धाम को पधार रहे थे उस समय ब्रह्मादि देवों ने स्तुति की। इस स्तुति में केवल एक ही श्लोक है - नमो नमस्तेऽखिलयज्ञतन्तवेस्थितौ गृहीतामलसत्त्वमूर्तये । दिष्टया हतोऽयं जगतामरुन्तुदः त्वत्पादभक्त्या वयमीश निर्वृता।' ब्रह्मा की आज्ञा पाकर सन्तानोत्पत्ति के लिए ऋषिकर्दम ने हजार वर्षों तक सरस्वती के तीर पर शरणागत वत्सल श्रीहरि की उपासना की। उपासना से प्रसन्न विधाता साक्षात् प्रकट हो गये। प्रभु को साक्षात् देखकर ऋषि कर्दम स्तुति करने लगे। यह स्तुति सकाम स्तुति है। सन्तानोत्पत्ति की कामना से की गई है। कर्दम कहते हैं-स्तुति करने योग्य परमेश्वर ! आप संपूर्ण सत्त्वगुण के आधार हैं । योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियों में जन्म लेकर अन्त में योगस्थ होने पर आपके दर्शनों की इच्छा करते हैं, आज आपका वही दर्शन पाकर हमारे नेत्रों को फल मिल गया। आपके चरण कमल भवसागर से पार जाने के लिए जहाज हैं । जिनकी बुद्धि आपकी माया से मारी गई है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय सुखों के लिए जो नरक में भी मिल सकते हैं, उन चरणों का आश्रय लेते हैं, किन्तु स्वामिन् आप तो उन्हें विषय भोग दे देते हैं । प्रभो ? आप कल्पवृक्ष हैं । आपके चरण समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं, मेरा हृदय काम कलुषित है । मैं भी अपने अनु१. श्रीमद्भागवत ३।१५।४-५ २. तत्रैव ३।१५।४६-५० ३. तत्रैव ३।१५।५० ४. तत्रैव ३।१९।३० ५. तत्रैव ३।२१।१३-२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy