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६० : सम्बोधि
नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मोह-कर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते हैं।
सेनापतौ विनिहते, यथा सेना विनश्यति । एवं कर्माणि नश्यन्ति, मोहनीये क्षयं गते ॥२२॥
२२. जिस प्रकार सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार मोह-कर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते हैं।
धूमहीनो यथा वह्निः, क्षीयतेसौ निरिन्धनः।
एवं कर्माणि क्षीयन्ते, मोहनीये क्षयं गते ॥२३॥ २३. जिस प्रकार धूम्र और इन्धन-हीन अग्नि बुझ जाती है उसी प्रकार मोह-कर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते हैं ।
शुष्कमूलो यथा वृक्षः, सिच्यमानो न रोहति ।
नैवं कर्माणि रोहन्ति, मोहनीये क्षयं गते ॥२४॥ २४. जिसकी जड़ सूख गई हो वह वृक्ष सींचने पर भी अंकुरित नहीं होता, उसी प्रकार मोह-कर्म के क्षीण होने पर कर्म अंकुरित नहीं होते।
न यथा दग्धबीजानां, जायन्ते पुनरंकुराः ।
कर्मबीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवाङकुराः ॥२५॥ २५. जिस प्रकार जले हुए बीजों से अंकुर उत्पन्न नहीं होते, उसी प्रकार कर्म बोजों के जल जाने पर जन्म-मरण रूप अंकुर उत्पन्न नहीं होते ।
कबीर ने कहा है
'जो मरने से जग डरे, मो मन में आनंद । कब मरिहों कब भेटि हों, पूरण परमानंद ॥'
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