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अध्याय ३ : ६१
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'जगत् मरने से डरता है किन्तु मैं मरने में आनंद मानता हूं । मैं कब मरूं और कब उस पूर्ण परमानंद का साक्षात् करूं । वहां कोई विजातीय तत्त्व नहीं है । वहां न शरीर है, न मन है, न इन्द्रियां और न बुद्धि । बस सिर्फ चैतन्य है ।
उपरोक्त श्लोकों ( २१ से २५) में यह स्पष्ट किया है कि जिसका जो मूल है उसका नाश होने पर शेष विनष्ट हो जाता है । आत्मा के पूर्णत्व की अभिव्यक्ति में बाधक हैं— कर्म । मोह कर्म उनमें मूल है। मोह के क्षीण होने पर. शेष कर्म अवशेष हो जाते हैं । आठों ही कर्मों के विलय होने पर आत्मा के लिए. कोई पारतन्त्य नहीं रहता । वह विकृति से सर्वथा मुक्त होकर प्रकृति में अवस्थित हो जाती है ।
मोह-क्षय का फल
विशुद्धया प्रतिमया, मोहनीये क्षयं गते । सर्वलोकमलोकं च, वीक्षते सुसमाहितः ॥ २६ ॥
२६. विशुद्ध प्रतिमा ( तप विशेष) के द्वारा मोह-कर्म के क्षीण होने पर समाहित आत्मा समस्त लोक और अलोक को देख लेता है।
सुसमाहितलेश्यस्य, अवितर्कस्य संयतेः ।
सर्वतो विप्रमुक्तस्य, आत्मा जानाति पर्यवान् ॥२७॥
२७. जिसका चित्त समाहित हो, जो अपने साधुत्व के प्रति आस्थावान् हो और जो सांसारिक बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो, उस संयमी की आत्मा पदार्थों की नाना अवस्थाओं को जान लेती है ।
तपोपहत लेश्यस्य दर्शनं परिशुद्धघति । काममूर्ध्वमधस्तिर्यक् स सर्वमनुपश्यति ॥ २८ ॥
२८. तपस्या के द्वारा जो कर्महेतुक लेश्याओं ( भावों) का विलय करता है उसकी दृष्टि शुद्ध हो जाती है । शुद्ध दृष्टि वाला व्यक्ति ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक में अवस्थित सब पदार्थों को देखता है ।
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