________________
अध्याय ३ : ५६.
२०. ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म तथा शेष सभी कर्म मोहकर्म को उत्तेजित करने में निमित्त बनते हैं। इसलिए मोह-कर्म सब में प्रधान है और शेष सब कर्म उसी के परिवार हैं ।
संसारी आत्मा शरीर में आबद्ध है । उसकी बहुमुखी प्रवृत्तियां हैं । उन सबका वर्गीकरण दो भागों में किया जा सकता है— बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और अन्तर्मुखी प्रवृत्तियां । बहिर्मुखी प्रवृत्तियों का कर्ता आत्मा - बहिरात्मा या सकर्मात्मा है । अन्तर्मुखी प्रवृत्तियां दो धारा में प्रवाहित होती हैं। एक धारा सर्वथा निष्कर्मात्मा की है और दूसरी सत्कर्मात्मा की । सत्कर्म की तीव्र परिणति ही निष्कर्म अवस्था है, जिसे परमात्मा कहते हैं । इस प्रकार एक ही आत्मा के तीन रूप बन जाते हैं। - बहिरात्मा (सकर्मा ), अन्तरात्मा ( सत्कर्मा) और परमात्मा (पूर्ण निष्कर्मा) ।
मोहाच्छन्न आत्मा सकर्मा है । उसका देहाभ्यास नहीं छूटता । पर-पदार्थों में वह स्व- दर्शन करता है । उन्हें अपना समझता है, इसे अविद्या कहते हैं । सैद्धान्तिक भाषा में यह मिथ्यात्व है । मोह के दो रूप हैं । एक दर्शन - मोह और दूसरा चरित्र - मोह |
दर्शन मोह मिथ्यात्व है । अ-स्व में स्वबुद्धि का होना मिथ्यात्व है । मिथ्यात्वी का संसार- भ्रमण कभी उच्छिन्न नहीं होता । वह मोहासक्त होकर अशुभ कर्मों का अर्जन करता है । उनसे दर्शन और ज्ञान आवृत होते हैं, आत्म-शक्ति का ह्रास होता है और आत्मा अनुकूल पदार्थों से वियुक्त होती है । ज्ञान के तीव्र उदय से दर्शन का भी तीव्र उदय होता है । दर्शन के तीव्र उदय से दृष्टि का मोह प्रबल होता है। उससे फिर अशुभ कर्म की ओर प्राणी प्रवृत्त होता है। इस प्रकार यह संसार-चक्र क्रमशः बढ़ता रहता है ।
आत्म-अहित का मूल मिथ्यात्व है । चरित्र मोह भी अहितकारी है, लेकिन इतना नहीं जितना कि दर्शन - मोह। यह विपरीत मान्यताओं का घर है । अज्ञान और अदर्शन आत्मा को विकृत नहीं करते। विकृत केवल मोह ही करता है । अन्य कर्म मोह की उत्तेजना में सहायक हो सकते हैं, लेकिन स्वयं वे आत्मा को विकृत नहीं बनाते ।
मस्तकेषु यथा सूच्यां, हतायां हन्यते तलः ।
एवं कर्माणि हन्यन्ते, मोहनीये क्षयं गते ॥२१॥
२१. जिस प्रकार सूई से ताड़ का अग्रभाग नष्ट होने पर ताड़
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org