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(३) चिर -- बालू की रेखा के समान । (४) क्षिप्र - पानी की रेखा के समान । मान के चार स्तर—
(१) कठोरतम --- पत्थर के स्तंभ के समान । (२) कठोरतर - अस्थि के स्तंभ के समान । (३) कठोर - काष्ठ के स्तंभ के समान । (४) मदु - लता के स्तंभ के समान । माया के चार स्तर -
( १ ) वक्रतम - बांस की जड़ के समान । (२) वक्रतर - मेंढे के सींग के समान ।
(३) वक्र- - चलते बैल की मूत्रधारा के समान । (४) प्रायः ऋजु -- छिलते बांस की छाल के समान ।
लोभ के चार स्तर -
(१) गाढ़तर - कृमि - रेशम के समान ।
(२) गाढ़तर - कीचड़ के समान ।
(३) गाढ़ -- खञ्जन के समान ।
( ४ ) प्रतनु - हल्दी के रंग के समान । मोह के उत्तर भेद
हास्य, रति, अरति, शोक, भय जुगुप्सा आदि ।
अरतिञ्च रति हास्यं भयं शोकञ्च मैथुनम् । स्पृशन् भूयोऽपि मूढात्मा भवेत् कारुण्यभाजनम् ॥ ३१॥
अध्याय २ : ३७
३१. जो मूढ़ आत्मा संयम में अरति (अप्रेम) और असंयम में रति (प्रेम), हास्य, भय, शोक और मैथुन का पुनः पुनः स्पर्श करता है, वह दयनीय होता है ।
प्रयोजनानि जायन्ते, स्रोतसां वशवर्तिनः । अनिच्छन्नपि दुःखानि, प्रार्थी तत्र निमज्जति ॥ ३२ ॥
३२. जो इन्द्रियों का वशवर्ती है उसकी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताएं होती हैं । वह दु:ख न चाहता हुआ भी निःस्पृह न
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