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३६ : सम्बोधि
विषयेषु विरक्तो यः स, शोकं नाधिगच्छति । न लिप्यते भवस्थोपि, भोगैश्च पद्मवज्जलैः ॥२७॥
२७. जो विषयों से विरक्त होता है वह शोक को प्राप्त नहीं होता । वह संसार में रहता हुआ भी पानी में कमल की तरह भोगों से लिप्त नहीं होता।
इन्द्रियार्था मनोर्थाश्च, रागिणो दुःख-कारणम् ।
न ते दुःखं वितन्वन्ति, वीतरागस्य किञ्चन ॥२८॥ २८. जो रागी होता है उसके लिए इन्द्रिय और मन के शब्द आदि विषय दुःख के कारण बनते हैं, किन्तु वीतराग को वे कुछ भी दुःख नहीं दे सकते।
विकारमविकारञ्च, न भोगा जनयन्त्यमी।
तेष्वासक्तो मनुष्यो हि, विकारमधिगच्छति ॥२६॥ २६. शब्द आदि विषय आत्मा में विकार या अविकार उत्पन्न नहीं करते, किन्तु जो मनुष्य उनमें आसक्त होता है वह विकार को प्राप्त होता है।
मोहेन प्रावृतो लोको, विकृतात्मा विशिक्षितः । क्रोधं मानं तथा मायां, लोभं घृणां मुहुव्रजेत् ॥३०॥
३०. जिसका ज्ञान मोह से आच्छन्न है और जिसकी आत्मा विकृत है वह पढ़ा-लिखा होने पर भी बार-बार क्रोध, मान, माया, लोभ और घणा करता है।
मोह के मूल और उत्तर भेद अनेक हैं। मोह के मूल चार हैं(१) क्रोध (२) मान (३) माया (४) लोभ । प्रत्येक के चार स्तर हैं। क्रोध के चार स्तर(१) चिरतम-पत्थर की रेखा के समान । (२) चिरतर-मिट्टी की रेखा के समान ।
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