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________________ ३८ : सम्बाधि होने के कारण दुःखों को चाहने वाला है। इसीलिए वह उनमें (दुःखों में) डूब जाता है। सुखानां लब्धये भूयो, दुःखानां विलयाय च । संगृह्णन् विषयान् प्राज्यान, सुखैषी दुःखमश्नुते ॥३३॥ ३३. जो व्यक्ति सुखों की प्राप्ति और दुःखों के विनाश के लिए पुनः-पुन: प्रचुर विषयों का संग्रह करता है, वह सुखान्वेषी होते हुए भी दुःख को प्राप्त होता है, क्योंकि विषय का संग्रह ही दुःख का मूल है। इन्द्रियार्था इमे सर्वे, विरक्तस्य च देहिनः । मनोज्ञत्वाऽमनोज्ञत्वं, जनयन्ति न किञ्चन ॥३४॥ ३४. इन्द्रियों के विषय अपने आप में न मनोज्ञ हैं और न अमनोज्ञ । ये रागी पुरुष के लिए मनोज्ञ-अमनोज्ञ होते हैं। जो वीतराग होता है उसके लिए मनोज्ञ या अमनोज्ञ नहीं होते। कामान् संकल्पमानस्य, सङ्गो हि बलवत्तरः । तानऽसङ्कल्पमानस्य, तस्य मूलं प्रणश्यति ॥३५॥ ३५. जो काम-भोगों का संकल्प करता है उस व्यक्ति की कामासक्ति सुदृढ़ हो जाती है और जो काम-भोगों का संकल्प नहीं करता उसकी कामासक्ति का मूल नष्ट हो जाता है। 'सर्वेन्द्रियप्रीतिः कामः'—जो समस्त इन्द्रियों को आह्लादित करता है वह काम है । मानसिक संकल्प काम (इच्छा) का उत्पादक है। मनु का कथन है कि सब इच्छाएं संकल्प से उत्पन होती हैं। संकल्प को रोक दो, काम रुक जाएगा। कामना का संकल्प न हो इसलिए उसे जानो और संकल्प करो काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे । नाहं संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ काम ! मैं तेरे स्वरूप को जानता हूं, तू संकल्प से उत्पन होता है। मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा। तब तू मेरे कैसे हो सकेगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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