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अध्याय २ : २७
स्वास्थ्य का संबंध मन और भोजन दोनों से है । कहा जाता है कि नब्बेप्रतिशत बीमारियां मन में उत्पन्न होती हैं । चिन्ता, ईर्ष्या, भय, उद्वेग, क्रोध, अहंकार, प्रतिशोध आदि दूषणों से मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं । इनसे आक्रान्त मन दूषित रहता है । वह अनिष्ट कल्पनाओं का ताना-बाना बुनता रहता है । वह कहीं स्थिर नहीं रहता। मानसिक रोगी में विशुद्ध प्रेम और पवित्रता का अभाव रहता है ।
अस्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास निषिद्ध नहीं है किन्तु उत्कृष्ट साधना के लिए शारीरिक संस्थान भी अपेक्षित है । अस्वस्थ शरीर मन को भी अस्वस्थ बना देता है । एकाग्रता की साधना में स्वस्थ मन जितना अपेक्षित है, उतना ही स्वस्थ शरीर भी अपेक्षित है । यह ऐकान्तिक सत्य नहीं है, फिर भी शरीर की स्वस्थता के लिए आहारविवेक परम आवश्यक है । 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' - इसमें बहुत कुछ सचाई है । आहार शरीर और मन दोनों को प्रभावित करता है । असात्त्विक आहार से उत्तेजना बढ़ती है और इससे मन भी प्रभावित होता है । खाद्य-संयम के तीन पहलू हैं :
(१) खाने के पदार्थों की संख्या में कमी करना ।
(२) अति-आहार का वर्जन करना ।
(३) कामोद्दीपक पदार्थों के सेवन का वर्जन करना । '
यथा दवाग्निः प्रचुरेन्धने वने, समारुतो नोपशमं ह्य ुपैति । एवं हृषीकाग्निरनल्पभुक्ते नं शान्तिमाप्नोति कथञ्चनापि ॥ १३ ॥
१३. वन ईंधनों से भरा हो, हवा चल रही हो, वहां सुलगी हुई दावाग्नि जैसे नहीं बुझती उसी प्रकार ठूंस-ठूंसकर खाने वाले की इन्द्रियाग्नि- कामाग्नि शान्त नहीं होती। इसीलिए ठूंस-ठूंसकर खाना किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता ।
इन्द्रिय-संयम और आहार-संयम का घनिष्ठ संबंध है । आहार संयम से इन्द्रिय-संयम फलित होता है। जिस व्यक्ति का आहार संयमित नहीं होता, उसे इन्द्रियों के विषय बहुत सताते हैं । अनियमित आहार, अति आहार या अत्यल्प आहार - ये तीनों शरीर के लिए हानिकारक हैं। अति आहार से सारे धातु विषम हो जाते हैं । इस विषम स्थिति में अनेक रोग शरीर को आक्रान्त कर देते हैं ।
१. भोजन संबंधी विशेष विवरण के लिए देखें - १०।५-१५ ।
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