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२६ : सम्बाधि
और द्वेष भी बढ़ते हैं। राग और द्वेष इसी के बीज हैं। सारे दुःखों की उत्पत्ति इनसे होती है। एक बार श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-'पार्थिव ! विश्व के सभी प्राणी इच्छा-राग और द्वेषवश संसार के आवर्त में फंसे पड़े हैं।' राग-द्वेष कर्म को उत्पन्न करते हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होते हैं। कर्म ही जन्म-मरण की परंपरा के मूल हैं। जन्म-मरण ही दुःख है । दुःखोत्पत्ति के कारणों की विद्यमानता में दुःख का अन्त नहीं होता। दुःखों का अन्त मोह के मूलोच्छेद से ही संभव हो सकता है। ___मोह का सर्वथा नाश होने पर राग-द्वेष का मूलोच्छेद हो जाता है । तृष्णा नष्ट हो जाती है । तृष्णा के अभाव में दुःख नष्ट हो जाता है । तृष्णा का जन्मदाता लोभ है । लोभ सभी पापों का निमित्त और सद्गुणों का विनाशक है।
अलोभ का अर्थ है आकिंचनता। जिसका अपना कुछ भी नहीं वह अकिंचन है । आकिंचन्य की अवस्था में होनेवाला आनन्द अनिर्वचनीय होता है । वह आत्मगम्य है । एक योगी ने कहा है
अकिञ्चनोऽहमित्यास्व, त्रैलोक्याधिपतिर्भवेत् ।
योगिगम्यमिदं प्रोक्तं, रहस्यं परमात्मनः ।। अपने आपको अकिंचनता की अनुभूति में रख। तीन लोक का अधिपति हो जाएगा। यह परमात्मा का योगिगम्य रहस्य तुझे बताया गया है।
द्वेषञ्च रागञ्च तथैव मोह-मुद्धर्तुकामेन समूलजालम् । ये ये ह्य पाया अभिषेवणीया-स्तान् कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्वम् ॥११॥
११. राग, द्वेष और मोह का मूलसहित उन्मूलन चाहने वाले मुनि को जिन-जिन उपायों को स्वीकार करना चाहिए, उन्हें मैं क्रमश: कहूंगा।
रसाः प्रकामं न निषेवणीयाः, प्राप्ता रसा दृप्तिकरा नराणाम्। दृप्तञ्च कामा समभिद्रवन्ति, द्रुमं यथा स्वादु-फलं विहङ्गाः ॥१२॥
१२. रसों (विषयों) का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए । रस मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं । जिसकी धातुएं उद्दीप्त होती हैं उसे विषय सताते हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी।
मोह का उन्मूलन अनेक साधनों से होता है। उसमें पहला साधन हैआहार-विजय ।
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