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अध्याय २ : २५
जानता हुआ भी काम-भोगों में मूच्छित हो रहा हूं।'
राग-द्वेष का प्रवाह कर्म की सृष्टि करता है। कर्म-युक्त आत्मा जन्म-मरण की परंपरा को छिन्न नहीं कर पाती।
यथा च अण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च । एवञ्च मोहायतनं हि तृष्णा, मोहश्च तृष्णायतनं वदन्ति ॥८॥
८. जैसे बगुली अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बगुली से, उसी भांति मोह का उत्पत्ति-स्थान तृष्णा है और तृष्णा का उत्पत्ति-स्थान मोह है।
द्वेषश्च रागोऽपि च कर्मवीज, कर्माऽथ मोहप्रभवं वदन्ति । कर्माऽपि जातेमरणस्य मूलं, दुःखं च जाति मरणं वदन्ति ॥६॥
६. राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है। तीर्थंकरों ने जन्म-मरण को दुःख कहा है।
दुःखं हतं यस्य न चास्ति मोहो, मोहो हतो यस्य न चास्ति तृष्णा। तृष्णा हता यस्य न चास्ति लोभो, लोभो हतो यस्य न किञ्चनास्ति॥१०॥
१०. जिसके मोह नहीं है उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं है उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है उसने तृष्णा का नाश कर दिया और जिसके पास कुछ भी नहीं है उसने लोभ का नाश कर दिया।
'मोहायतन' का अर्थ है---मोह की उत्पत्ति का स्थान। मोह की जड़ तृष्णा है। तष्णा का अर्थ है---प्राप्त के प्रति असंतोष और अप्राप्त की आकांक्षा। तष्णा मोह को सदा हरा-भरा रखती है। संसार के सभी पदार्थों पर काल का प्रभाव पड़ता है, किन्तु तष्णा सदा तरुण रहती है। वह कभी जर्जर नहीं होती। जिसने तष्णा को जीत लिया, वह सर्वजित् है । ___मोह और तृष्णा का अविनाभाव संबंध है। तृष्णा बढ़ती है, तब मोह बढ़ता है। जब मोह प्रबल होता है, तब तृष्णा भी प्रबल होती है। इसके साथ-साथ राग
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