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________________ २८ : सम्बोध व्यक्ति अति आहार करता है, इसके कई कारण हैं : (१) रसगृद्धि। (२) आहार-संज्ञा की प्रबलता । (३) भोजन संबंधी नियमों की अजानकारी। (४) झूठी भूख। अति-आहार करनेवाला योग में प्रवृत्त नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें चंचलता का आधिक्य रहता है। गीता में लिखा है-'नात्यर्थमश्नतो योग:'--जो अधिक खाता है, वह योग की साधना नहीं कर सकता। योगी को सदा सूक्ष्म आहार करना चाहिए। सूक्ष्म आहार से इन्द्रियां शान्त रहती हैं। इन्द्रियों की प्रशांत अवस्था में मन की एकाग्रता सधती है। आचार्य भिक्षु ने पेट व्यक्ति की अवस्था का सून्दर चित्र खींचा है—'जो लूंस-ठूसकर आहार करता है, वह प्यास लगने पर पानी भी नहीं पी सकता। पानी के अभाव में उसका खाया हुआ अन्न पचता नहीं। पेट फटने लगता है। उस व्यक्ति को क्षण-भर भी चैन नहीं होता, उसे नींद नहीं आती और वह पलभर भी शान्त नहीं रह सकता। धीरे-धोरे अनेक रोग उसे घेर लेते हैं और अन्त में वह बुरी तरह से मृत्यु को प्राप्त होता है।' विविक्तशय्याऽसनयन्त्रिताना-मल्पाशनानां दमितेन्द्रियाणाम । रागो न वा धर्षयते हि चित्तं, पराजितो व्याधिरिवौषधेन ॥१४॥ १४. जो एकान्त बस्ती में रहने के कारण नियन्त्रित हैं, जो कम खाते हैं और जो जितेन्द्रिय हैं उनके मन को राग-रूपी शत्रु वैसे पराजित नहीं कर सकता जैसे औषध से मिटा हुआ रोग देह को पीड़ित नहीं कर पाता। एकान्तवास-मन की एकान्तता में एकान्त है और अनेकान्तता में अनेकान्त। सब जगत् एकान्त है और एकान्त कहीं भी नहीं है। मन को एकान्त करने के लिए भी निमित्तों का महत्त्व गौण नहीं होता। निमित्त की प्रतिकूलता में एकान्त मन द्वैध में चला जाता है । अव्यक्त अवस्था में वातावरण का प्रभाव नहीं पड़ता, ऐसा कहना कठिन है। प्रबुद्ध मन पर उसका असर नहीं होता, यह कहा जा सकता है। मन की प्रबुद्धता के लिए वातावरण भी वैसा प्रस्तुत करना अपेक्षित है। ___ जो अतीत की असत् प्रवृत्तियों की शुद्धि कर चुका है, वर्तमान में उनसे विरत है और भविष्य में असत् प्रवृत्ति न करने का जिसका संकल्प है, उस व्यक्ति के लिए सर्वत्र एकान्त है। चाहे वह गांव में रहे या जंगल में, प्रगट में रहे या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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