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आशीर्वचन
प्रागैतिहासिक काल की घटना है। जैन-धर्म के आदि-तीर्थंकर भगवान् ऋषभ इस धरती पर थे । एक दिन उनके अट्ठानवें पुत्र मिलकर आए। उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की-भरत ने हम सबके राज्य छीन लिए हैं। हम अपना राज्य पाने की आशा लिए आपकी शरण में आए हैं।'
भगवान् ने कहा-'मैं तुम्हें वह राज्य तो नहीं दे सकता किन्तु ऐसा राज्य दे सकता हूं, जिसे कोई छीन न सके।'
पुत्रों ने पूछा-'वह राज्य क्या है ?' भगवान् ने कहा-'वह राज्य है-आत्मा की उपलब्धि ।' पुत्रों ने पूछा-'वह कैसे हो सकती है ?' तब भगवान् ने कहा
'संबुज्झह किं न बुज्मह, संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा।
नो ह वणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥' -'सम्बोधि को प्राप्त करो। तुम सम्बोधि को प्राप्त क्यों नहीं कर रहे हो? वीती रात लौटकर नहीं आती। यह मनुष्य जीवन भी बार-बार सुलभ नहीं है।' . इस प्रकार जैन-धर्म के साथ सम्बोधि का प्रागैतिहासिक संबंध है। सम्बोधि क्या है ? वह है-आत्म-मुक्ति का मार्ग। वे सब मार्ग जो हमें आत्मा की संपूर्ण स्वाधीनता की ओर ले जाते हैं, एक शब्द में 'सम्बोधि' कहलाते हैं। बोधि के तीन प्रकार हैं :
१. ज्ञान-बोधि २. दर्शन-बोधि
३. चारित्र-बोधि तीन प्रकार के बुद्ध होते हैं :
१. ज्ञान-बुद्ध २. दर्शन-बुद्ध ३. चारित्र-बुद्ध
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