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________________ (छह) जैन दर्शन का यह अभिमत है कि हम कोरे ज्ञान से आत्म-मुक्ति को नहीं पा सकते, कोरे दर्शन और कोरे चारित्र से भी उसे नहीं पा सकते। उसकी प्राप्तिा तीनों के समवाय से अर्थात् अविकल सम्बोधि से हो सकती है। जैन-धर्म वस्तुतः प्राचीन धर्म है। उसके बाईस तीर्थकर प्रागैतिहासिक काल में हुए हैं। पार्श्व और महावीर ऐतिहासिक व्यक्ति हैं । जैन-धर्म के मुख्य सिद्धान्त हैं -- (१) आत्मा है। (२) उसका पुनर्जन्म होता है। (३) वह कर्म की कर्ता है। (४) वह कृत-कर्म के फल का भोक्ता है। (५) बन्धन है और उसके हेतु हैं । (६) मोक्ष है और उसके हेतु हैं। जैन दर्शन के अनुसार मुक्त जीव ही परमात्मा होते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार हर आत्मा में परमात्मा होने की क्षमता है। काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि का उचित योग मिलने पर आत्मा परमात्मा हो जाती है, बन्धन से मुक्त होकर अपने विशुद्ध रूप में प्रकट हो जाती है। जैन दर्शन आदि से अन्त तक आध्यात्मिक दर्शन है। उसका समग्र चित्र आत्म-कर्तृत्व की रेखाओं से निर्मित है। ईश्वर-कर्तृत्व की अपेक्षा आत्म-कर्तृत्व से हमारा निकट का सम्बन्ध है। हम अपने कर्तृत्व को इष्ट दिशा की ओर मोड़ सकते हैं किंतु उसके कर्त त्व को इष्ट दिशा की ओर नहीं मोड़ सकते जिसका हमसे सीधा सम्बन्ध नहीं है। इस लिए जीवन के निर्माण और विकास में आत्म-कर्तृत्व के सिद्धान्त का बहुत बड़ा योग है। 'सम्बोधि' में आदि से अंत तक उसी का व्यावहारिक संकलन है। - इसका रचना-क्रम श्रीमद्भगवद्गीता जैसा है। योगिराज कृष्ण की तरह इसके उपदेशक तीर्थंकर महावीर हैं। 'सम्बोधि' का अर्जुन भंभासार श्रेणिक का पुत्र मुनि मेघकुमार हैं। इसकी संवादात्मक शैली शिक्षित और. अल्प-शिक्षित सभी लोगों के लिए समान रूप से उपयोगी होगी। धवल-समारोह पर 'मनोनुशासनम्' लोगों के सामने आया। उसमें जैन-दर्शन के आधार पर योग-प्रक्रिया का दिग्दर्शन कराया गया है। उसके प्रकाश में आने के बाद मुझे यह आवश्यकता प्रतीत हो रही थी कि उस प्रक्रिया को विस्तृत और विश्लेषणपूर्वक समझाने वाले किसी ग्रंथ की रचना अवश्य हो । 'सम्बोधि' को देख मेरी वह भावना बहुत अंशों में साकार हुई। मुझे तब बहुत आश्चर्य हुआ, जब शिष्य मुनि नथमल (अब युवाचार्य महाप्रज्ञ)ने मेरे बिना किसी पूर्व इंगित के यह कार्य सम्पन्न कर मेरे समक्ष रखा। यद्यपि उसके पश्चात इसमें परिवर्तन-परिवर्द्धन भी किया गया किंतु प्रारंभ की 'सम्बोधि' स्वयं संबुद ही थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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