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मुनीनां कायसंस्पर्श- प्रमिलानाश मात्रतः । अधीरो मामुपेतोसि सद्यो गन्तुं पुनर्गृहम् ॥३४॥
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अध्याय १ : १७
३४. साधुओं के शरीर का स्पर्श होने से रात को तेरी नींद नष्ट हो गई । इससे ही तू अधीर होकर घर लौट जाने के लिए सहसा मेरे पास आ गया |
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नाहं गन्तुं समर्थोस्मि मुक्ति-मागं सुदुश्चरम् । यत्र कष्टानि सह्यानि नानारूपाणि सन्ततम् ||३५||
३५. तूने सोचा - मुक्ति का मार्ग सुदुश्चर है। वहां चलने वाले को निरन्तर नाना प्रकार के कष्ट सहन करने होते हैं। मैं उस पर चलने में समर्थ नहीं हूं ।
सर्वे स्वार्थवशा एते, मुनयोऽन्यं न जानते । भीमः सुदुश्चरो घोरो, निर्ग्रन्यानां तपोविधिः ॥३६॥
३६. 'ये सब साधु स्वार्थी हैं, दूसरे की चिंता नहीं करते । निर्ग्रन्थों की तपस्या करने की विधि बड़ी भयंकर, सुदुश्चर और घोर है ।'
युक्तोऽयं किमभिप्रायः, मोहमूलं विजानतः । देहे सुग्धा जना लोके, नानाकष्टेषु शेरते ॥३७॥
३७. मोह के मूल को जानने वाले के लिए क्या ऐसा सोचना ठीक है, जैसा कि तूने सोचा है ? क्या तू नहीं जानता कि शरीर में आसक्ति रखनेवाले लोग नाना प्रकार के कष्ट भोगते हैं ?
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युक्तं नैतत्तवायुष्मन् ! तत्त्वं वेत्सि हिताहितम् । पूर्व - जन्म स्थिति स्मृत्वा, निश्चलं कुरु मानसम् ॥ ३८ ॥
३८. आयुष्मन् ! तेरे लिए ऐसा सोचना ठीक नहीं। क्या हित
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