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१८ : सम्बोधि
है और क्या अहित — इस तत्त्व को तू जानता है । तू पिछले जन्म की घटना को याद कर अपने मन को निश्चल बना ।
हन्त ! हन्त ! समर्थोऽयमर्थो यश्च त्वयोदितः । मदीयो मानसो भावो, बुद्धो बुद्धेन सर्वथा ॥ ३६ ॥
३६. मेघ बोला- भगवन् ! आपने जो कुछ कहा, वह बिल्कुल सही है । आपने मेरे मन के सारे भाव जान लिए ।
ईहापोहं मार्गणाञ्च गवेषणाञ्च कुर्वता । तेन जातिस्मृतिर्लब्धा, पूर्वजन्म विलोकितम् ||४०||
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४०. ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करने से मेघ को पूर्वजन्म की स्मृति हुई और उसने अपना पिछला जन्म देखा
त्वदीया देशना सत्या दृष्टा पूर्वस्थितिर्मया । सन्देहानां विनोदाय, जिज्ञासामि च किञ्चन ॥४१॥
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४१. मेघ बोला- भगवन् ! आपको वाणी सत्य है । मैंने पूर्वभव की घटनाएं जान लीं । मेरे मन में कुछ सन्देह हैं । उन्हें दूर करने के लिए आपसे कुछ जानना चाहता हूं ।
मेघ का मन आलोक से भर गया । उसके पूर्वजन्म उसकी आंखों के सामने नाचने लगे । वह विस्मित- सा देखने लगा । ' मैं कहां चला गया ? प्रभो ! मैं जगकर भी सोने जा रहा था । आपने मुझे बोध देकर पुनः जागृत कर दिया । मेरे विषम मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ चली । आप मार्ग द्रष्टा हैं, जीवन-स्रष्टा और जीवन-निर्माता हैं ।'
'अब मैं चाहता हूं तत्त्व-ज्ञान जिससे मेरा मन सदा सन्तुलित रहे, उतारचढ़ाव की परेशानियों से उद्वेलित न हो । आप मेरी जिज्ञासा को शान्त करें, मेरे संशय मिटाएं और मुझे अनंत शक्ति का साक्षात् कराएं ।'
संशय सत्य के निकट पहुंचने का द्वार है । लेकिन वह अज्ञान और अश्रद्धा से समन्वित नहीं होना चाहिए । 'न हि संशयमनारुह्य, नरो भद्राणि पश्यति' संशय
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