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१६ : सम्बोधि
अवशा वेदयन्त्येके, कष्टमजितमात्मना।
विलपन्तो विषीदन्तः, समभावः सुदुर्लभः ॥३१॥ ३१. कई व्यक्ति पहले कष्ट का अर्जन करते हैं, फिर जब उसे भुगतना पड़ता है तब वे विलाप और विषाद के साथ उसे भुगतते हैं। व्यक्ति कर्म करने में स्वतन्त्र होता है। किन्तु उसका फल भुगतने में परतन्त्र । हर एक के लिए समभाव सुलभ नहीं होता।
उदीर्णा वेदनां यश्च, सहते समभावतः । निर्जरां कुरुते काम, देहे दुःखं महाफलम् ॥३२॥
३२. जो व्यक्ति कर्म के उदय से उत्पन्न वेदना को समभाव से सहन करता है, उसके बहुत निर्जरा (कर्मक्षय जनित आत्म-शुद्धि) होती है। क्योंकि शरीर में उत्पन्न कष्ट को सहन करना महान फल का हेतु है।
निर्जरा-आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता। सुख और दुःख आत्मा की कर्मजन्य अवस्थाएं हैं। ये वैभाविक हैं। शुद्ध आत्मा में ये नहीं होतीं। शरीर भी विकृति है। सुख और दुःख देह में उत्पन्न होते हैं । सुख सदा प्रिय है, दुःख सदा अप्रिय । सुख में हर्ष होता है और दुःख में विषाद, यह विषमता है। राग और द्वेष असंतुलित अवस्था में होते हैं। ये आत्मा के लिए बन्धन हैं । समत्व मुक्ति है, निर्जरा है। इसलिए इस पर बल दिया है कि शरीर में आने वाले सुख और दुःख दोनों को समभाव से सहन करो। यह महान् फल का हेतु है ।
असम्यकत्वी तदा कष्ट, नाभवो वत्स ! कातरः । सम्यक्त्वी संयमीदानी, क्लीवोऽभूः स्वल्पवेदने ॥३३॥
३३. वत्स ! उस समय हाथी के जन्म में तू सम्यकदृष्टि नहीं था, फिर भी कष्ट में कायर नहीं बना । इस समय तू सम्यकदृष्टि है और संयमी भी । फिर भी इतने थोड़े से कष्ट में क्लीव—सत्त्वहीन बन गया?
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