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________________ अध्याय १ : १५ निष्क्रिय पांव को पुनः भूमि पर रखने का प्रयत्न किया। स्थूलकायः क्षुधाक्षामः, जरसा जीर्ण-विग्रहः। पादन्यासे न शक्तोऽभूः, भूतले पतितः स्वयम् ॥२८॥ २८. तेरा शरीर भारी-भरकम था। तू भूख से दुर्बल और बुढ़ापे से जर्जरित था। इसलिए तू पैर को फिर से नीचे रखने में समर्थ नहीं हो सका । तू लड़खड़ाकर भूमि पर गिर पड़ा। विपुला वेदनोदीर्णा, घोरा घोरतमोज्ज्वला। सहित्वा समवृत्तिस्तां, तत्र यावद् दिन-त्रयम् ॥२६॥ २६. उस समय तुझे विपुल, घोर, घोरतम और प्रज्वलित वेदना हुई। तीन दिन तक तूने उसे समभावपूर्वक सहन किया। आयुरन्ते पूरयित्वा, जातस्त्वं श्रेणिकाङ्गजः। अहिंसा साधिता सत्त्वे, कष्टे च समता श्रिता ॥३०॥ ३०. तूने अहिंसा की साधना की और कष्ट में समभाव रखा । अन्त में आयुष्य पूरा कर तू श्रेणिक राजा का पुत्र हुआ। __इस श्लोक में दो महत्त्वपूर्ण बातें दी गयी हैं-प्राणियों के प्रति अहिंसा का बर्ताव और कष्ट में समभाव । अहिंसक व्यक्ति के ये दो गुण सहज हैं। वह किसी भी प्राणी का उत्पीड़न नहीं करता, दुःख नहीं देता और न उनपर अनुशासन ही करता है। जिसके मन में आत्मौपम्य की भावना का विकास होता है, वही व्यक्ति दूसरों के उत्पीड़न आदि से बच सकता है । दूसरे को अपने तुल्य माने बिना अहिंसा का प्रयोग ही नहीं हो सकता। दूसरी बात है-कष्टों में समभाव रहना । यह हर एक के लिए साध्य नहीं है । जो अहिंसक और अभय होता है, जो आत्मलीन होता है, जो कष्ट को साधना की कसौटी मानता है, वही समता का आचरण कर सकता है। जिसके मन में द्वन्द्वों-राग-द्वेष, मान-अपमान, सुख-दुःख के प्रति हर्ष और विषाद का भाव होता है, वह समता का आचरण नहीं कर सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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