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________________ परिशिष्ट - १ : ४२६ सभी के पास भाषा है, किन्तु वह संवाद उसी समय हो सकता है जिस समय साधक बाहर से शून्य हो जाता है, उसके साथ एकत्व स्थापित कर लेता है । एक घर में एक छोटे बच्चे का फोटो था । स्त्री गर्भवती हुई और उसने वैसा ही बच्चा पैदा किया। किसी ने पूछा -- यह तो इस फोटो जैसा ही लगता है। मां ने कहा मैं गर्भावस्था में इसी का ध्यान करती थी । बस यही रहस्य है । यह कोई असम्भव घटना नहीं है । सब खेल ध्यान का है । जैसा आप चाहो वैसा बन सकते हो, शर्त हैं तीव्र ध्यान की । प्रतिमा, इष्ट आदि पर ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है । चित्त की एकाग्रता का यह सरल उपाय है । जैसे-जैसे वीतराग के साथ हमारा तादात्म्य होता चला जायेगा मूर्ति आकार खो जाएगा और आप उस भावधारा में डूबते चले जायेंगे | किन्तु यह घटना कोई एक क्षण में घटने वाली नहीं है । साधक में तीव्र अभिलाषा चाहिए | समय देना चाहिए और प्रतीक्षा करनी चाहिए। इष्ट साकार होता है । रूपातीत रुपातीत ध्यान के विषय में आचार्य शुक्लचन्द्र कहते हैं- 'रूपस्थ ध्यान में जब चित्त स्थिर हो जाता है, विकल्प-विभ्रम क्षीण हो जाते हैं तब ध्याता को अमूर्त, अरूप, अजर और अव्यक्त का ध्यान प्रारम्भ करना चाहिए । जो अमूर्त है वह चिदानन्दमय शुद्ध परम अविनाशी है। उस आत्मा का आत्मा के द्वारा ध्यान करना रूपातीत ध्यान है ।" यह रूपातीत होते हुए भी कल्पना प्रधान तथा अमूर्त अदृश्य अवलम्बन प्रधान है । इसमें ध्येय अन्य कोई न होकर आत्मा ही है । किन्तु यहां भी ध्याता ध्येय और ध्यान की त्रिपुटी बनी हुई है । जब तीनों की एकात्मकता होती है तब पूर्ण निरालम्बन की स्थिति प्रकट होती है । यह सालम्बन और निरालम्बन का संधि स्थान है । एक तरफ आलम्बन है और दूसरी तरफ निरालम्बन का प्रस्तुतीकरण है। यहां काम की पूर्णाहुति है, समस्त यौगिक विधियां शेष होती हैं । ध्यान के उपक्रमों में थका साधक विश्राम में डूबता है । यह अप्रयत्न होते हुए भी प्रयत्न, अक्रिय होते हुए भी क्रिया का वेग सर्वतः सिमट कर स्वयं की दिशा में गतिशील हो जाता है । इसलिए बहुत अधिक सक्रिय है। दूसरी दिशाओं में होने वाला प्रयास यहां नहीं रहता । रूपातीत ध्यान का प्रारम्भ कल्पना की यात्रा से शुरू होता है, किन्तु समापन वास्तविकता में होता है । यदि केवल कल्पना की सीमा में साधक दोड़ता रहे तो वह निरालम्बन, निर्विचार की मंजिल पर नहीं जा पाता । साधक का ध्येय हैआत्म-दर्शन । वह विचार - शून्यता में अभिव्यक्त होता है । अस्तित्व की झलक १. ज्ञानार्णव ४० / १४, १६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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