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४३० : सम्बोधि
विचारों से तरंगित झील में प्रतिबिम्बित नहीं होती। इसलिए वास्तविक ध्यान का उद्देश्य रूपातीत को कल्पना से मुक्त होने पर दृष्टिगत होता है। ध्यान की गहराई में डूबे साधकों ने इसे ही ध्यान कहा है। आचार्य शुक्लचन्द्र ने कहा हैवही ध्यान है वही विज्ञान है और वही ध्येय है जिसके द्वारा मन अविद्या का अतिक्रमण कर अपने आत्म-स्वरूप में स्थित हो जाता है।'
यही ध्यान जब धारणा, ध्यान से मुक्त हो जाता है तब शुक्लध्यान में परिणत हो जाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है-'वह शुक्लध्यान है जो क्रियामुक्त है, इन्द्रियों से परे है, ध्यान धारणा से रहित है और चित्त स्वरूप के संमुख रहता है। ___ आचार्य कुंदकुंद कहते हैं - 'पुरुष आकार----शरीराकार ज्ञान-दर्शन से संपन्न आत्मा का जो योगी ध्यान करते हैं, वह द्वन्द्वातीत और पापमुक्त हो जाते हैं।
साधक जब अन्य ध्यान के प्रयोगों से सर्वथा प्रयत्नशून्य होकर एकत्वअस्तित्व को प्राप्त कर लेता है। तब वास्तविक निश्चय ध्यान को उपलब्ध होता है। जिस स्थिति में चिन्तन, वाणी, और शारीरिक प्रयत्न सब शांत हो जाते हैं, आत्मा आत्मा में रत हो जाती है, वही परम व्यान है।'
आचार्य रामसेन की दृष्टि में यही समाधि है समरसी भाव है और एकीकरण है। दोनों लोकों में यह फलप्रद है। __ बुद्ध ने कहा है-यह पागल मन रुकता नहीं। यदि यह रुक जाय तो वही बोधि है निर्वाण है । मन का मिट जाना स्वयं का होना है। जे० कृष्णमूर्ति कहते हैं—'जहां विचार समाप्त होता है, वहां जीवन का प्रारम्भ होता है। जीवन की वास्तविक अनुभूति मरकर ही की जा सकती है और वह ध्यान द्वारा सम्भव है। इसलिए वे कहते हैं- 'ध्यान विचार का अन्त है। ध्यान स्वयं एक ध्येय है। यह कोई वस्तु-सिद्ध करने का साधन नहीं हैं । लेकिन ध्यान हो इससे पहले ध्यान करने वाले का अन्त होना चाहिए।' बुद्ध ने भी अपने साधकों से यही कहा है-इससे पहले कि तुम परम सत्य को जानने जाओ ऐसे हो जाओ, जैसे कि तुम मर गए हो। कबीर इस प्रकार कहते हैं-'जब तक मैं था खोज-खोज कर परेशान हो गया उसे नहीं पाया । और जब मैं मिट गया तो मैंने देखा-वह सामने खड़ा है । वह दूर नहीं था, 'मैं था इसलिए दूर था। वूमिक नामक कवि ने कहा है-जैसे उगना होता है उसे बीज की तरह स्वयं को खोना पड़ता है, और जो रेंगते हैं वे रेंगने की अवस्था से पंख निकलने की अवस्था तक पहुंच जाते हैं। जैन साधक हाकुजू इकाई से किसी ने पूछा-संसार में सर्वाधिक चमत्कार की घटना कौन-सी
१. ज्ञानार्णव २२।२०। २. ज्ञानार्णव ४२।४।
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