SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० : सम्बोधि मेघ के लिए प्रवज्या का पथ बिल्कुल नया था। उसकी दृष्टि अभी तक बाहर से पूर्णतया हटी नहीं थी। बाह्य असुविधाएं खड़ी होते ही वह विचलित हो उठा । 'दुःख-सुख का कारण मैं स्वयं हूं, और कोई नहीं'---यह शाश्वत स्वर स्मृति से ओझल हो चला । दूसरों की उपेक्षा उसे खलने लगी। चिरं प्रतीक्षितो रश्मिः, रवेरुदयमासदत् । महावीरस्य सान्निध्यमभजत् सोपि चञ्चलः॥८॥ ८. वह चिरकाल तक सूर्य की प्रतीक्षा करता रहा । रात बीती और सूर्य की रश्मियां प्रकट हुईं। वह अस्थिर विचारों को लेकर भगवान् महावीर के पास पहुंचा। विधाय वन्दनां नम्रः, विदधत् पर्युपासनाम् । विनयावनतस्तस्थौ, विवक्षुरपि मौनभाक् ॥६॥ ९. वह विनयावनत हो भगवान् को वन्दना कर उनकी पर्युपासना करने लगा। वह बोलना चाहता था, फिर भी संकोचवश मौन रहा। कोमलं भगवान् प्राह, मेघ ! वैराग्यवानपि । इयता स्वल्पकष्टेन, कातरस्त्वमियानभूः ॥१०॥ १०. भगवान् कोमल शब्दों में बोले- 'मेघ ! तू विरक्त होते हुए भी इतने थोड़े-से कष्ट से इतना अधीर हो गया ? पश्य स्तिमितया दृष्टया, कष्टं तत्पौर्वदेहिकम् । असम्यक्त्वदशायाञ्च, वत्स! सोढं त्वया हि यत्॥११॥ ११. तू अपने मन को एकाग्र बना और स्थिर-शान्त दृष्टि से अपने पूर्वजन्म के कष्ट को देख । वत्स ! उस समय तू सम्यक्-दृष्टि नहीं था, फिर भी तूने अपार कष्ट सहा था। असम्यक्त्व-दशा ऐसी है जिस में शरीर और चेतना की भेद-बुद्धि अभिव्यक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy