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अध्याय १ : ११
नहीं होती।
___ "मैं शरीर हूं" यह अनन्त जन्मों का गहरा संस्कार है। प्राणी इससे जकड़ा हुआ है । जब तक व्यक्ति इस संस्कार से मुक्त नहीं होता तब तक सत्य का दर्शन कठिन है। 'मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ'-इसकी अनुभूति से उस संस्कार की नामशेषता स्वतः ही हो जाती है या इस नए संस्कार का निर्माण कर पुराने संस्कार की व्यर्थता का बोध कर लिया जाता है।
कथं मयाऽथ कि कष्ट, स्वीकृतं ब्रूहि तत् प्रभो!। न स्मरामि न जानामीत्यस्मि बोद्ध समुत्सुकः ॥१२॥
१२. मेघ बोला-प्रभो ! मैंने क्या कष्ट सहा और कैसे सहा। वह न मुझे याद है और न मैं उसे जानता ही हूं। प्रभो ! मैं उसे जानने को उत्सुक हूं। आप मुझे बताएं ।
भगवान् प्राह सत्योचं, घटना पौर्वदेहिकी। जातिस्मृति विना वत्स ! बोद्ध शक्या न जन्तुभिः ॥१३॥
१३. भगवान् ने कहा-वत्स ! तू सच कहता है । जाति-स्मृति (वह ज्ञान जिससे पूर्वजन्म की स्मृति हो सके ) के बिना पूर्वजन्म की घटना कोई भी प्राणी नहीं जान सकता ।
ईहापोहं विनकायं विना सा नैव जायते । संस्काराः सञ्चिता गूढाः, प्रादुःस्युर्यत् प्रयत्नतः ॥१४॥
१४. ईहा (वितर्क), अपोह (निश्चय ) और मन की एकाग्रता के बिना जाति-स्मृति-ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। जो संचित और गूढ़ संस्कार होते हैं, वे प्रयत्न से ही प्रकट होते हैं ।
जाति-स्मृति-ज्ञान का अर्थ है-अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान । यहां 'जाति' शब्द का अर्थ जन्म है । यह जैन दर्शन द्वारा सम्मत पांच ज्ञानों के अन्तर्गत मतिज्ञान में समाविष्ट होता है। यह प्रत्येक प्राणी को नहीं होता। जो व्यक्ति मन को अत्यन्त एकाग्र कर वस्तु की तह तक पहुंचता है, उसे ही यह प्राप्त होता है। सर्वप्रथम किसी एक
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